________________
भक्तामर प्रवचन
काव्य १०
आप समान हो जायेगा । हे नाथ! आपके व्यक्त गुणों की सच्ची स्तुति करनेवाला श्रद्धा-अपेक्षा तो तुरंत भगवान समान हो जाता है और चारित्र अपेक्षा थोड़े समय बाद आप जैसा हो जायेगा। अत: यह महान पद आपकी कृपा का फल है - ऐसा कहहने में आता है।
हेनाथ! आपनेसर्वज्ञ पद प्राप्त किया, किंतु अभी मेरेकेवलज्ञान प्राप्ति काकाल नहीं है; फिर भी आपका निर्देश हैकिजिसकेस्वभाव में एकाग्रता हो, उसे केवलज्ञान हुए बिना नहीं रहता । हेनाथ! आपकी आराधनाकर आप जैसा बनना है।
भगवान आदिनाथ ने आत्मा के ज्ञानानन्द का भान एवं शुद्धता की पूर्णता कर धर्मतीर्थ का आद्य प्रवर्तन किया। इस परमपद के रहस्य को जानने वाला मैं भी परमात्मा होने वाला हूँ। आत्म-द्रव्य पूर्ण ज्ञानानन्द शक्ति का पिण्ड है। मैं उसके निरन्तर चिन्तन में वृद्धि कर आप जैसा तीर्थंकर होऊँगा एवं तत्पश्चात् मोक्ष जाऊँगा। आपकी सच्ची स्तुति करने वाला इस पृथ्वी पर आप जैसा बने - इसमें कोई बड़ा आश्चर्य नहीं है। आत्मा के परमपद के समक्ष तीर्थंकर पद आश्चर्यकारी पद नहीं है - यह दृढ़ता की बात है; इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। सिद्ध भगवान समान शक्ति का भरोसा करने वाला अवश्य ही परमात्म पद प्राप्त करेगा।
आप से क्या माँगना ? जिस तरह आम का पेड़ फल के भार से झुक जाता है, तब छोटा बच्चा भी आम तोड़ लेता है; उसीप्रकार हे नाथ ! आपके अनन्त चतुष्टय की सत्ता की श्रद्धा मेरे हृदय में हुई, तब मुझे आप जैसा होना ही है, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। अभेद साध्य-साधन का अनुभव होने पर मेरे परमात्मा समान होने में कोई अतिरेक नहीं है और अव्याप्ति दूषण भी नहीं है।
अपने परमात्म-स्वभाव की प्रतीति, उसी में दृढ़तापूर्वक अन्तरंग में - भाव-श्रुतज्ञान में यथार्थ भाव का भासन हो और साथ में प्रशस्त राग हो तो तत्फलस्वरूप तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति बँधती है - इस सबकी अपेक्षा आप जैसा होने की बात कही गई है।
__एक गरीब आदमी सेठ के पास जाकर एक रुपया माँगता है, उस रुपये से व्यापार करते-करते वह करोड़पति हो जाता है। संसार में पुण्य अधिक होने पर पूर्ववर्ती सेठ की पूँजी से भी अधिक पूँजी होना संभव है, तब भी वह विनयवान नया सेठ उस सेठ को अपने बँगले पर बुलाकर कहता है कि - हे अन्नदाता! यह महल आपका ही है। आपके पास से मैंने एक रुपया लिया था, वही बढ़ते-बढ़ते करोड़ों के रूप में फलित हुआ है। यह सब आप ही के प्रताप से हुआ, इसीप्रकार नित्य ध्रुव स्वभाव के आश्रय से व्यवहार में परमात्मा के आश्रय से केवलज्ञानरूप लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ज्ञानी इसी बात को जानता है, अत: उसे भगवान के प्रति भक्ति उमड़ती है और कहता है कि हे नाथ ! आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हई है। अपने सेवक को आप अपने जैसा न करो तो अन्य कौन करेगा ? पुण्य से नौकर भी सेठ हो जाता है; उसीप्रकार आपका भक्त अन्तरंग की पवित्रता से आप जैसा होजावे.तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित शास्त्रों में निश्चयनय की मुख्यता है। कोई कहते हैं कि दोनों नय समकक्षी हैं एवं समान कार्यकारी हैं, किन्तु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है। अध्यात्मशास्त्र में निश्चय मुख्य है एवं व्यवहार गौण है; किन्तु जहाँ भक्ति का वर्णन हो, वहाँ विनयभाव बताना है, अत: व्यवहार की अपेक्षा बात की जाती है। अत: आप यहाँ कहते हैं कि - हे प्रभु ! आपके प्रताप से आप जैसा होने में सन्देह नहीं है।
जिनेन्द्र पूजन का अचिन्त्य प्रभाव "गृहाचार में सर्वोत्तम शरण, परिणामों की विशुद्धता करनेवाला कार्य नित्य पूजन करना ही है। .... बहुरि पूजन करना, करावना, करते को भला जानना, सो समस्त पूजन ही है। .... मन से, वचन से. काय से, धन से, विद्या से, कला से - जैसे भी अरहंत के गुणों में अनुराग बढे, वैसा करना, क्योंकि जिनमन्दिर की वैयावृत्ति सम्यक्त्व की प्राप्ति करै है। तथा मिथ्याज्ञान, मिथ्याश्रद्धान का अभाव करै, स्वाध्याय, संयम, तप, व्रत, शीलादि गुण जिनमन्दिर का सेवन से ही होय, नरक-तिर्यंचादि गतिनि में परिभ्रमण का अभाव होय। जिनमन्दिर समान कोऊ उपकार करनेवाला जगत में दूजा नाहीं है।" - पंडित सदासुखदासजी, टीका-रत्नकरंडश्रावकाचार, पृष्ठ : २२१