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भक्तामर प्रवचन
काव्य९
पड़ रहा है। इसप्रकार कवि ने वहाँ भी आपकी पवित्र भक्ति ही देखी है। हे नाथ ! इन्द्र द्वारा की गई भक्ति को कौन पसन्द नहीं करेगा ? अर्थात् सब ही करते हैं।
यदि अन्तरंग में निश्चयभक्ति का अंश प्रगट हुआ हो तोशुभराग व्यवहारभक्ति कहलाती है। आत्मा सदा निर्विकार ज्ञानानन्दमय है, उसका सत्कार कर उसमें एकाग्र होना ही निश्चयभक्ति है। ज्ञानी को इस निश्चयभक्ति सहित व्यवहारभक्ति होती है। 'सर्वज्ञ तीन काल, तीन लोक का स्वरूप जानते हैं, मैं भी वैसे ही ज्ञानस्वभाव वाला हूँ; स्वभाव के सन्मुख होकर ऐसा निश्चय करना निश्चयभक्ति है। तदनंतर धर्मात्मा को शुभरागरूप भक्ति हो, उसे व्यवहारभक्ति कही है।
हे भगवन् ! देव आपके भक्त हैं। उन्होंने आपके चरण-कमलों की इसप्रकार आराधना की है कि उनके मुकुट के मणियों की शोभा आपके चरण-कमलों पर ही निर्भर करती है। आत्मा का स्वभाव जैसा है, वैसा जानने से अज्ञान का नाश होता है। उस समय जो शुभराग होता है, वह अशुभ का नाशक है।
चौरासी लाख योनियों में भटकने वाले जीव को आपका उपदेश ही तरने में आधारभूत एवं हितरूप है, इसप्रकार आपका उपदेश सहायक है। हे नाथ ! श्रुतज्ञान में पूर्ण निपुण श्रुतकेवली भी आपकी ही भक्ति करते हैं, फिर मैं करूँ तो क्या आश्चर्य है ? बारह-अंग-शास्त्र के ज्ञाता क्षायिक सम्यग्दृष्टि इन्द्र को शुभराग होता है, इसलिए वह आपकी भक्ति करता है। __ज्ञानानन्द स्वभाव के भान में वीतराग स्वरूप की भक्ति का उल्लास हुआ, उससे अन्य समस्त महान सम्यग्दृष्टि आपकी भक्ति में सावधान हैं - ऐसा मैं देखता हूँ। वे अन्तरंग में शुद्धस्वभाव के प्रति तन्मय होते हैं।
श्रुतकेवली साधु भी अति आदर भाव के साथ आपकी स्तुति करके दिव्य-भक्ति का प्रवाह बहाते हैं। जिनेन्द्र भगवान देवों के द्वारा पूजित तथा पापसमूह के नाशक हैं, वे भव्यजीवों के हेतु हितकारी उपदेश करते हैं। अपने आत्मा से ही उत्पन्न होनेवाले सुख के उपाय - मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं,
इसलिए मैं आपकी भक्ति करता हूँ, शत-शत बार नमस्कार कर प्रथम जिनेश्वर देव श्री आदिनाथ भगवान की स्तुति करता हूँ।
इन्द्र १००८ नामों के द्वारा आपकी स्तुति करता है, उनमें नाम तो क्रमवर्ती हैं। आपके केवलज्ञान की पर्याय काल-अपेक्षा एक के बाद एक क्रमशः होती है, किन्तु भाव अपेक्षा आपका ज्ञान तो अक्रम (युगपत्) सबको एक समय में जानता है। आपने लोकालोक को अक्रम रूप से जाना, किन्तु पदार्थों की अवस्था तो क्रमश: होती है। पर्यायें एक के बाद एक होती हैं। ___लोग कहते हैं कि क्रमबद्धपर्याय की नवीन बात कहाँ से लाए ? भाई ! यह नवीन नहीं है - सर्वज्ञस्वभाव के निर्णय के साथ यह क्रमबद्धपर्याय का निर्णय आता ही है। उसमें ही कर्त्तापने की आकुलता मिटकर स्वसन्मुखता का, ज्ञातापने का सच्चा समाधान करनेवाला सत्य पुरुषार्थ भी आता है; 'क्रमबद्ध' शब्द सोनगढ़ का नहीं है। इस स्तोत्र के ३९ नम्बर के श्लोक में क्रमबद्ध की बात आयेगी। वहाँ क्रम' शब्द का अर्थ 'पग' है। पंचाध्यायी' ग्रंथ में 'क्रमबद्धपर्याय' के लिए (पर्यायें क्रमभावी हैं, ऐसा कहने के लिए) क्रम में पग का दृष्टान्त है। जैसे पैर एक के बाद एक रखा जाता है, वैसे ही आपका केवलज्ञान क्रम में वर्तता है; और लोकालोक की अवस्था क्रमरूप है, उसको आप एक साथ (अक्रम-युगपत्) जानते हैं। महाकवि बनारसीदासजी कृत 'जिनसहस्रनाम' स्तोत्र में भगवान का एक नाम क्रमवर्ती है। स्व-पर की पर्यायें क्रमबद्ध होती हैं। जिसने ऐसा निर्णय कर लिया, उसे शुभराग के काल में सर्वज्ञ भगवान की भक्ति का वेग आता है। अत: मैं भी आपकी भक्ति करता हूँ।
जिसप्रकार आपकी स्तुति करनेवालों को सिंह नहीं मार सकता, उसीप्रकार विकारी परिणाम स्वभाव की एकता को नहीं तोड़ सकते।
१. गुणी गुप्त गुणवाहक बली, जगत दिवाकर कोतूहली।
क्रमवर्ती करुणामय क्षमी, दशावतारी दीरध दमी ।।२।।