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भक्तामर प्रवचन
काव्य९
पुलकित हो जाता है और अपूर्व प्रसन्नता द्वारा असंख्य निजप्रदेशों में आनन्द के नये पुष्पांकुर प्रस्फुटित होते हैं।
धर्मी जीव अनन्त दिव्य शक्तिमान वीतराग प्रभु के निर्दोष स्तवन को आत्म-विकास के लिए सनिमित्त मानते हैं। हे प्रभु ! तेरी कथा में पराश्रयव्यवहार-राग का आदर नहीं है, किन्तु अकेले वीतराग स्वभाव का ही आदर है। पर की ओर की प्रवृत्ति चैतन्य की जागृति को रोकनेवाली है; राग जागृतदशा नहीं है। स्वसन्मुख होते ही ज्ञान की दशा जागृत हो जाती है। हे प्रभु ! निर्दोष स्तवन में अनन्त शक्ति है। जो सत्पुरुष अन्तरंग में एकाग्र होकर पवित्रता में रमता है, उसकी तो क्या बात ? किन्तु जो आपकी पवित्र कथारूप सत्शास्त्रों का स्वाध्याय करे, उसके भी भवताप का नाश होता है; क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग कथित शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता ही है। पंचास्तिकाय शास्त्र में शास्त्रतात्पर्य का अर्थ बतलाया है कि चारों अनुयोगों का सार वीतरागता है। ___ जो राग और निमित्त से लाभ मानता है, उसे तो शास्त्र पढ़ना ही नहीं आता। सब जगह द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतंत्रता और सर्वज्ञ स्वभाव का ही आदर करना चाहिए। जो सर्वज्ञ भगवान ने किया अर्थात् उन्होंने वीतरागदृष्टि एवं ज्ञानपूर्वक राग को रोका है। बस, वही मेरे करने योग्य है; प्रथम ही से ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए।
प्रथम, व्यवहार या राग करने को कहा जावे तो फिर कोई राग को दूर क्यों करेगा? भाई ! शुभराग भी किंचित् आदर करने योग्य नहीं है। उपसर्ग काल में मुनि मौन रहते हैं, उपदेश नहीं देते हैं। अत: श्री मानतुङ्ग आचार्य के अन्दर भक्तिरूप स्तवन की भावना जगी एवं पुण्य के उदय से ४८ ताले टूटे। राजा को विश्वास नहीं हुआ, उसने उनको पुन: जेल में डाल दिया, मजबूत पहरा लगाया; किन्तु फिर भी ताले टूट गये। तब राजा ने तीसरी बार कड़े पहरे के साथ विरोधियों को भी वहाँ रखा, फिर भी ताले टूट गये। जिसे ज्ञानस्वभाव मुक्तरूप से दृष्टि में आया, उसे कोई भी नहीं रोक सकता।
हमारे स्वभाव की योग्यता से स्वभाव विकसित हो जाता है और पाप का
नाश होता है; उसमें आपकी ही भक्ति निमित्त है। निर्मल बुद्धिधारक चतुर इन्द्र भी आपकी भक्ति में सराबोर रहता है। इन्द्र भी, जो एक भवावतारी है, मनुष्य होकर अल्पकाल में ही मुक्तिदशा प्राप्त करेगा, वह भी अपनी लघुता प्रगट करता हुआ नम्रतापूर्वक प्रभु के चरणों में आकर उत्कृष्ट भक्ति करता है।
जो वीतरागी हो गये हैं. उन्हें किसी के प्रति भक्ति का भाव नहीं होता और मिथ्यादृष्टि को भी यथार्थ भक्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन होने के बाद ही भगवान की पूजा और भक्ति यथार्थ होती है। स्वर्ग का स्वामी इन्द्र भी जिनेन्द्र देव की स्तुति, भक्ति और पूजा करता है। वह १००८ नाम लेकर भगवान की उत्तम प्रकार से स्तुति करता है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय अनन्तगुणसम्पन्न पूर्ण चिदानन्द स्वरूप भगवान आत्मा का पूर्ण वर्णन इन नामों से (विशेषणों से) भी नहीं होता। निज चैतन्य स्वरूप में स्थिर होने से ही यथार्थ स्तुति होती है। उसका साधन अन्तरंग में है। निज कारण-परमात्मा का आश्रय अर्थात् भूतार्थ ज्ञायक-स्वभाव का अभेद आश्रय ही एकमात्र मुक्ति का साधन है। यदि यह है तो अन्य को निमित्त मात्र कहा जाता है। ऐसा निर्णय जिन्होंने प्रारम्भ में ही कर लिया है, उन ज्ञानियों के ही यथार्थ भक्ति होती है। ___ वह स्तुति कैसी है ? महाचतुर देवांगनाओं का चंचल चित्त भी जिसे सुनकर स्तंभित हो जाता है। बारह अंगरूप शास्त्र के ज्ञाताओं के द्वारा की गई वह स्तुति तीन लोक के जीवों के चित्त का क्लेश दूर करती है और उन्हें प्रसन्नता देती है। इन्द्र भक्तिपूर्वक वीणा बजाता है; तब भक्ति-रस में मग्न जिसकी श्रद्धा में एक वीतरागता ही उपादेय है, उन सबका चित्त प्रसन्नता द्वारा स्तंभित हो जाता है। धर्मात्मा जहाँ-तहाँ वीतराग भगवान की महिमा ही महिमा देखता है। यद्यपि श्री पद्मनन्दि आचार्य नग्न दिगंबर सन्त थे, तथापि भक्ति में चित्त उमड़ पड़ा है।
चन्द्रमा को देखकर कोई कहता है कि उसमें हरिण का चिह्न दिख रहा है, कोई कहता है कि कलंक है; परन्तु हे नाथ ! यह चन्द्रमा पर कलंक का चिह्न नहीं है, अपितु स्वर्ग के देव परम भक्ति से आपके गुण गाते हैं, उसे संगीतमय विरुदावली को सुनने के लिए ही मानो यहाँ से हरिण गया है, वही वहाँ दिखाई