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काव्य १ व २ भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ।।१।। यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय-तत्त्व-बोधा
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः । स्तोत्रैर्जगत्रितय-चित्त-हरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।।२।।
हिन्दी काव्य सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अन्तर पाप-तिमिर सब हरें। जिनपदवंदोमन-वच-काय,भव-जल-पतितउधरन-सहाय।।१।। श्रुत पारग इन्द्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव।
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल ।।२।।
अन्वयार्थ- (भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणाम् उद्योतकम्) भक्तिवन्त देवताओं के नम्रीभूत मुकुटों की मणियों को अपने पदनखों की कांति से जगमगानेवाले - प्रकाशित करनेवाले, तथा (दलित-पाप-तमो-वितानम्) पापरूपी अन्धकार के समूह का नाश करनेवाले, (भव-जले पततां जनानाम् आलम्बनम्) संसार-सागर में गिरे हुए - पड़े हुए जगतजनों के आधारभूत, (युगादौ प्रथमं जिनेन्द्रम्) युग के आदि में - चतुर्थकाल के प्रारम्भ में अवतरित हुए प्रथम जिनेन्द्र आदिनाथ भगवान के (जिनपादयुगम्) चरण-युगल को (सम्यक् प्रणम्य) भली-भाँति भक्तिपूर्वक प्रणाम करके नतमस्तक होकर सकल-वाङ्मय-तत्त्व-बोधात्) समस्त शास्त्रों केतत्त्वज्ञान से (उद्भूत-बुद्धिपटुभिः सुर-लोक-नाथैः) जिन्हें बुद्धिकौशल की प्राप्ति हुई है - ऐसे देवेन्द्रों के द्वारा (जगत्रितय-चित्त-हरैः उदारैः स्तोत्रैः) तीनों लोकों के चित्त को हरण करनेवाले, महान गम्भीर आशयवाले स्तात्रों के द्वारा (य: संस्तुतः) जिनकी स्तुति की है, (तं प्रथमं जिनेन्द्रम्) उन्हीं प्रथम जिनेन्द्रदेव का (अहं अपि स्तोष्ये) मैं भी स्तवन करूँगा।
काव्य १व २
श्री मानतुङ्गाचार्यदेव ने इन दो छन्दों में आदिनाथ भगवान के स्तवन करने का संकल्प किया है।
काव्य १व २ पर प्रवचन ___ भक्तामर अर्थात् भक्त अमर । यह उन आदिनाथ भगवान की स्तुति है, जिनके सौ इन्द्र और असंख्य देवगण भक्त हैं। सौधर्म इन्द्र के बत्तीस लाख विमान हैं और ईशान इन्द्र के अट्ठाईस लाख विमान हैं - ऐसे सौधर्म-ईशान इन्द्र जिनेन्द्र भगवान के परम भक्त हैं। पूर्वभव में जिन्होंने स्वभाव की रुचि से पुण्य की रुचि को नकार करके आत्मभान की भमिका में विशिष्ट पण्यबंध किया था. उसी के फलस्वरूप उन्हें लाखों विमानों का संयोग भी मिला; तथापि उन सम्यग्दृष्टि इन्द्रों को इन्द्रपद का तथा इन्द्रसम्पदा का किंचित् भी माहात्म्य नहीं है। वे इन्द्र कहते हैं कि- "हे प्रभ! आपके पास केवलज्ञान है, स्व-परप्रकाशक ज्ञानज्योति पूर्ण प्रगट हुई है, उसकी महानता है। पुण्योदय के कारण प्राप्त हमारी ऋद्धि का कोई मूल्य नहीं है । यद्यपि इन्द्रपद की महान ऋद्धि है, तथापि वह मेरा निजस्वरूप नहीं है" - ऐसा वे स्वयं मानते हैं। देवों की आयु मनुष्यों से असंख्यगणी अधिक है अर्थात् सागरोपम की होती है। वे अधिक लम्बे काल तक स्वर्ग में रहते हैं, इसलिये उन्हें अमर कहते हैं। ऐसे अमर (देव) भगवान की भक्ति करते हैं, उनका शरीर विशेष तेजयुक्त होता है, जिसकी कल्पना साधारण मनुष्य नहीं कर सकता। जिनके कानों में मणिरत्न के कुण्डल और माथे पर मुकुट होता है - ऐसे स्वर्गलोक के देवगण जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करते हैं।
"हे प्रभु ! आपका पुण्य और पवित्रता अनुपम व उत्कृष्ट है। आप आद्य तीर्थंकर हो। हमें आत्मा का भान हुआ है, अब हमारी अधूरी दशा बहुत काल तक नहीं रहेगी। शुभ विकल्प उठा है, इसलिए भक्ति करते हैं; परन्तु यह विकल्प राग है, अन्तर में वीतरागतारूप निश्चयभक्ति ही यथार्थ भक्ति है। स्वभाव में पूर्ण एकाग्रता होने पर सिद्धदशा प्राप्त करेंगे और तब अष्टकर्म की १४८ प्रकृतियाँ छूट जावेंगी" - इसप्रकार देवगण स्तुति करते हैं। उनका मस्तक यद्यपि भगवान के चरणों में झुकता है, उनके मुकुटों की मणियों की प्रभा दिव्य होती है, तथापि आपके नखों की कान्ति से वे और अधिक सुशोभित होती हैं। यहाँ देवों के पुण्य का माहात्म्य नहीं है, यहाँ तो आपकी महान पवित्रता का