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काव्य४
काव्य४
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र-शशाङ्क-कान्तान्
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया। कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।४।।
हिन्दी काव्य गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावै पार । प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु, जलधितिरकोभुज-बलवंतु।।४।।
अन्वयार्थ - (गुण-समुद्र) हे गुणों के समुद्र ! हे गुणसागर ! (सुरगुरु-प्रतिम: बुद्धया अपि) बृहस्पति जैसे बुद्धिमान भी (ते शशाङ्क-कान्तान् गुणान्) आपके चन्द्रमा की कान्ति के समान निर्मल गुणों को (वक्तुं क्षमः) कहने में - वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं (अन्यः कः क्षमः) तो फिर अन्य किसकी शक्ति है, जो आपके गुणों का वर्णन कर सके ? (कल्पान्तकालपवनोद्धत-नक्र-चक्रम्) प्रलयकाल के तेज नक्र-चक्रम् अर्थात् तूफानी थपेड़ों से उछल रहे हैं मगरमच्छ, घड़ियाल आदि भयंकर जलजंतु जिसमें - ऐसे (अम्बुनिधिं) समुद्र को (भुजाभ्याम् तरीतुम्) दोनों भुजाओं से तैरने में (क: अलम्) कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं ।
काव्य ४ पर प्रवचन हे गुणों के समुद्र ! हे नाथ ! आप उपशमरस से भरे हुए हो। आपके गुणों का वर्णन देवताओं के गुरु बृहस्पति भी नहीं कर सकते हैं तथा राग और वाणी द्वारा निर्मलानन्द चैतन्य की स्तुति नहीं हो सकती है। अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय कर अन्तर में ठहरने से अपनी निश्चय-स्तुति होती है।
जिसप्रकार प्रलयकाल की तूफानी हवाओं से उद्वेलित, आकाश तक तरंगित लहरोंवाले भयंकर समुद्र को नादान बालक अपनी कमजोर भुजाओं से
पार पाने में समर्थ नहीं होता है; उसीप्रकार हे नाथ! आप अनन्त गुणों के सागर हो, आपके गुणों का पार पाने में कौन समर्थ हो सकता है?
जब प्रलयकाल जैसी हवा चलती हो, समुद्र डाँवाडोल होकर आकाश में उछाले ले रहा हो, बड़े-बड़े मगरमच्छ मुँह फाड़े बैठे हों - ऐसे समुद्र को अपनी निर्बल भुजाओं से तैरने में कौन समर्थ हो सकता है ? जिसप्रकार ऐसा समुद्र तरना अशक्य है, उसीप्रकार हे प्रभो! आपके गुण-समद्र को पार करना भी अशक्य है।
जब मिथ्यात्वरूप हठ को छोड़कर अन्तर्मुख होकर निर्विकल्प विज्ञानघन स्वभाव में ठहरे; तब निश्चय से आपकी भक्ति, सेवा, आराधना हुई कहलाती है।
द्वितीय शताब्दी के महान दिग्गज आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी स्वयम्भू स्तोत्र में कहते हैं कि - हे नाथ ! अभव्य जीव आपकी स्तुति नहीं कर सकते, क्योंकि अभव्य जीव वस्तुत: आपको नमन ही नहीं करते। यद्यपि अभव्य व्यवहार से नमस्कार करते हैं, देव-शास्त्र-गुरु को मानते हैं, यदि नहीं मानें तो नौवें ग्रैवेयक तक कैसे जा सकते हैं ? परन्तु वे आपको पहचानते नहीं हैं। उन्हें स्वभाव का माहात्म्य नहीं आता, अत: वे भी वस्तुत: भगवान की स्तुति नहीं करते । अपने मिथ्या अभिप्राय की ही सेवा-भक्ति करते हैं।
अभव्य व भव्य मिथ्यादृष्टि भले ही ग्यारह अंग के पाठी हों, व्यवहार पंचाचार का पालन करें, द्रव्यलिंगी मुनि होवें; फिर भी अन्तर में भेदविज्ञान नहीं है, जिन-आज्ञा का भावभासन नहीं हुआ है; क्योंकि रुचि विपरीत है, मिथ्या है।
यहाँ कोई पूछता है कि पहले तो आपने ऐसा कहा था कि आत्मा के अवलम्बन से सर्व पापों का नाश होता है और यहाँ भगवान की भक्ति, स्तुति, वन्दना, गुणानुवाद आदि निमित्तों से पापों का नाश होना कहा है; इसका क्या अभिप्राय है?
इसका उत्तर इसप्रकार है -