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भक्तामर प्रवचन
काव्य६
कोमल कोंपलें, मंजरी, बौर आते हैं, उन्हें देखकर कोयल कूजने लगती है। आम के बौर देखकर कोयल के कण्ठ में मिठास भर आती है और वह मीठीमीठी आवाज में कूजने लगती है; उसीप्रकार हे भगवन् ! मैं अल्पज्ञानी हूँ, कहाँ आपकी उत्कृष्ट पढ़ी (पदवी) और कहाँ मैं पामर ! आपकी पैढ़ी पर मुनीम के रूप में भी बैठ सकूँ - ऐसी सामर्थ्य मुझमें कहाँ ? जिसप्रकार अरबपति सर्राफ की पैढ़ी पर - गद्दी पर कुम्हार जैसे किसी सामान्यजन को बिठाये तो वह हँसी का पात्र होगा; उसीप्रकार मेरी स्थिति है, परन्तु उस अल्पज्ञता को मैं आपकी भक्ति के काल में भूल जाता हूँ। आपकी भक्ति का उत्साह प्रमोद मुझे भक्ति करने के लिए वाचाल कर रहा है। आपका परमात्म-स्वभाव पूर्ण हुआ है; उसकी परम प्रीति हमें बलात् आकर्षित कर भक्ति करने के लिए लाचार करती है। देखो! धर्मी जीवों को मानादि गलाने की, निरभिमानी होने की और अन्तर्मुख जागृत रहने की भावना होती है, जिससे इस जाति का शुभराग आये बिना नहीं रहता । भक्ति का राग बलपूर्वक आता ही है।
'आचार्य छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में झूलते हैं।' तथापि वे कहते हैं कि हे नाथ ! भक्ति का उत्साह मुझे बलात् ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है। भक्ति का भाव - शुभराग लाना नहीं पड़ता; परन्तु भूमिकानुसार स्वयं आता ही है। ज्ञानी उसे भी ज्ञाता-दष्टापने जानते हैं, उपादेय नहीं मानते।।
भक्ति की प्रेरणा ही मुझे वाचाल करती है। वाणी का निकलना तो जड़ की क्रिया है; परन्तु अन्दर में शुभराग आये बिना नहीं रहता । पूर्ण चारित्रदशा हुई नहीं, इसलिए शुभराग आता है। जिसप्रकार चैत्र मास में सम्पूर्ण आम्रवन में बौर लग रहे हों, तब कोयल मीठे-मीठे शब्द बोलती है, उसमें आम्रमंजरी (बौर) ही एक कारण है; उसीप्रकार मुझे जो शुभराग आता है, उसमें भी केवल आपकी भक्ति ही एकमात्र कारण है। पूर्ण वीतरागदशा नहीं हुई, जिससे यह राग आता है। विद्वान् भले ही अतिशय अलंकारयुक्त स्तोत्रों से आपकी भक्ति करें, परन्तु मैं तो अल्पज्ञ हूँ, मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? किन्तु क्या करूँ ? भक्ति का भाव आये बिना नहीं रहता। आपकी भक्ति ने मुझे वाचाल बना दिया है।
जैसे वसंत ऋतु में कोयल कूजती है; उसीप्रकार धर्मात्मा को आत्मा के भान की भूमिका में सम्यग्ज्ञान कला खिलती है। वहाँ परमात्मा की भक्ति का राग आये
बिना नहीं रहता । वाणी तो वाणी के कारण निकलती है। फिर भी ऐसा कहा जाता है कि हम वचन द्वारा भगवान की स्तुति करते हैं - यह व्यवहार कहलाता है।
हे नाथ! जिसप्रकार आप पूर्ण वीतरागी, सर्वज्ञस्वरूपस्थ प्रतिमावत् स्थिरअक्रिय हो गये हैं; मुझे भी इसीतरह स्वरूप में ठहरना है, परन्तु जब तक पूर्ण वीतराग दशा न हो, तब तक ऐसा (भक्ति का) शुभराग आये बिना नहीं रहता है, अत: आपके गुणगान (भक्ति) करता हूँ।
प्रश्न : जब पंचमकाल में मोक्ष नहीं होता तो फिर ऐसी मोक्ष की बात ही क्यों करते हो? ऐसा कोई कहे तो भले कहो, किन्तु भाई! चैत्रमास में जब आम्र फलता है, तब कोयल कूजती ही है; उसीप्रकार इस समय आत्मा के धर्म की प्राप्ति का काल पका है - इसकारण आत्मा की चर्चा या मोक्षमार्ग की चर्चा किये बिना भी रहा ही नहीं जाता। भक्ति के भाव की तरह तत्त्वचर्चा का भाव भी पुण्य का भाव भले ही हो, परन्तु निश्चय से तो चैतन्य आनन्दस्वरूप आत्मा श्रद्धा में बैठा है। भगवान की भक्ति के उत्साह के वश होकर धर्मी जीव वाणी से वाचाल हुए बिना नहीं रहते। आचार्य कहते हैं कि मुझे योग्यकाल में योग्य विकल्प आता है, इसलिए आपकी भक्ति करता हूँ।
कोऊ देवादिक सहायी नाही..... .....तातें ऐसा निश्चय है - जो अशुभकर्म का उपशम हुए बिना अर शुभकर्म का उदय हुए बिना कोऊ देवादिक सहायी नाहीं होय है। अपना देह ही वैरी हो जाय है। खरदूषण के पुत्र शंबुकुमार ने महापुरुषार्थकरि द्वादश वर्ष पर्यंत बाँस के बीड़ा में सूर्यहास खड्ग सिद्ध किया, अर लक्ष्मण ने उसे सहज ही प्राप्त कर लिया; अर उसी खड्गतूं खरदूषण के पुत्र शंबुकुमार का ही मस्तक छेद दिया।
अपने हित के अर्थि साधन की हुई विद्या से आप ही का घात हुआ। तातें पूर्वकर्म का उदयकरि अनेक उपकार, अपकार प्रवर्ते हैं। कोऊ देवादिक की आराधना करने से धन, आजीविका, स्त्री-पुत्रादिक देने में समर्थ नहीं हैं। श्री। कार्तिकयस्वामी ने कार्तिकयानुप्रेक्षा में कहा भी है -
णय को वि दे दि लक्छी, ण कोवि जीवस्स कुणदि उवयारे। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।।३१९।।
__ - पण्डित सदासुखदास : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ : ४९)