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भक्तामर प्रवचन
काव्य७
किन्तु वे बादल ध्यानाग्नि द्वारा टूट गये हैं । हे प्रभु! मैं यह मानता हूँ कि कर्मों के टुकड़े ही बादल के रूप में बिखरे हुए घूम रहे हैं।
आत्मा के भान सहित अंतरंग में एकता होना निश्चय स्तवन है और आपकी भक्ति व्यवहार स्तवन है। ऐसे स्तवन या भक्ति से पाप कर्म तो नष्ट होते ही हैं। अंतरंग में भेदविज्ञान द्वारा सर्वप्रकार के रागादि को हेय मानकर जब से आत्मा जागृत हुआ, तब से स्वाश्रय की अभेद भक्ति तो है ही, साथ ही व्यवहारभक्ति के भाव से कर्म विकार नष्ट होजाते हैं। जैसे-सर्य से अन्धकार नष्ट होता है। यहाँयह बताया है कि मैं नित्य चिदानन्दघन आत्मा हैं। जहाँ उस आत्मा कासत्कार किया कि कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। मुनिराज के भक्ति का शुभराग हुआ है, जिसके फल में वेस्वर्ग जावेंगे, किन्तु इस पक्ष को गौण कर वीतरागदृष्टि के जोर में यहाँ यह कहा गया है कि भक्तिसे हमारे कर्म नष्ट होते हैं।
जब अभेद भक्ति अर्थात् अखंड ज्ञानस्वभाव की पुष्टिरूपी कीर्तन-स्तवन हो, उस समय तो व्यवहार भक्ति का विकल्प नहीं हो और राग का कीर्तन भी वस्तुत: श्रद्धा में नहीं आवे - ऐसी दृढ़ता होते हुए भी जबतक वीतराग न हो, तब तकराग आये बिना नहीं रहता । अनन्तभव धारण किए, किन्तु अब तो भव का अभाव करने वाला द्रव्य स्वभाव मेरी अंतरंग रुचि में जग गया है, इसलिए कर्मों का नाश होगा ही। स्वभाव और विभाव दोनों का भेदज्ञान हो गया है, इसलिये अल्पकाल में बंधन नश जायेंगे।
आचार्य श्री मानतुङ्ग पंचमकाल के मुनि थे, इसलिए देवलोक में जावेंगे। असंख्य वर्ष का एक पल्योपम और दस कोड़ा-कोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम काल होता है, ऐसे सागरोपम की लंबी आयु स्वर्ग-लोक में होती है। जिन्हें राग का एक कण भी आदरणीय नहीं था और देह की क्रिया से अपने को भिन्न मानते थे तथा भेदविज्ञान द्वारा आज भी ज्ञाता-दृष्टास्वरूप ही हैं एवं जो स्वर्ग में अमृत के भोजन से तृप्त हैं। स्वर्ग के भव के बाद थोड़े ही समय में शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश होगा, ऐसा भाव धर्मात्मा को आये बिना नहीं रहता।
पहले कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र का राग आता था, अब (दृष्टि बदल जाने के बाद) उसके स्थान में सुदेवादिक का शुभराग न आवे तो कुलटा स्त्री जैसा दुष्टभाव है। 'सत्तास्वरूप' ग्रंथ में सर्वज्ञदेव की सत्ता का निर्णय कराकर गृहीत मिथ्यात्व के त्याग की प्रेरणा दी गई है। यदि जीव पहले अज्ञान में कुदेव-कुगुरु
कुशास्त्र के लिए मन-वचन-काया से धनादि खर्च कर क्रोध-मान-माया-लोभ के परिणाम करता था। अब उसे जब सुदेव-सुगुरु-सुशास्त्र मिल गये हैं, तब उनके प्रति अधिक भक्तिरूप शुभराग न आये और शक्ति-अनुसार धनादि खर्च कर भक्ति-पूजा, प्रभावना आदि में प्रीतिपूर्वक रस न लेता हो तो वह कुलटा स्त्री के समान पक्का मिथ्यादृष्टि है। ___ यहाँ आचार्य कहते हैं - अब मैं आत्मज्ञानपूर्वक अंतरंग लीनता में तथा निजपरमात्मा की सेवा-भक्ति में सावधान हुआ हूँ और जब विकल्प आता है, तब हे भगवन् ! आपको ही अपना सर्वप्रकार हितोपदेशक जानकर आपकी ही भक्ति करता हूँ। मुझे दूसरे का स्वप्न में भी आदर नहीं है, इसलिए अल्पकाल में ही मेरा कर्ममल सर्वथा दूर होनेवाला है। __शंका : क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धावाले के अल्पकाल में मोक्ष की बात कहाँ से लाये!
समाधान : भाई! क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करनेवाले जीव को अक्रमस्वरूप जो नित्य द्रव्य स्वभाव सर्वज्ञस्वभाव है, मुख्यरूप से उसका आदर और रुचि है। जिसे इस ज्ञाता स्वभाव की रुचिव दृष्टि हुई है, उसे अल्प काल में ही मुक्ति होती है। हे नाथ ! आप तो तीन काल और तीन लोक केमात्र ज्ञाता हैं, किसी के कर्ता नहीं हैं।' - यह जानते हुए मुझे यह भी निर्णय है कि मैं भी तीन काल-तीन लोक का ज्ञाता हूँ तो मैं अल्पज्ञ क्यों रहूँ? राग आता है, फिर भी करने योग्य नहीं - ऐसी दृष्टि हुई है। भक्ति के शुभराग में पाप दूर रहते हैं और पूर्ण पवित्र स्वभाव की तल्लीनता में पुण्य-पाप दोनों दूर हो जाते हैं। मैं अन्तर्मुख हुआ हूँ, इसलिए केवलज्ञान व्यक्त होने का स्वकाल मेरी पर्याय के क्रम में अल्प काल में आने वाला है।
अन्तरंग दृढ़ता की बात बाहर में न करते हुए भी स्तुति में निर्मानता से नि:संदेह श्रद्धा की झंकार आ गई है कि हे नाथ! आपके भक्तिपूर्ण स्नेह से ही मेरे अनेक भवों के इकट्ठे हुए कर्म नष्ट होते हैं।
यह निश्चय भक्ति सहित व्यवहार भक्ति की बात है। अज्ञानी व्यवहार के आश्रय से लाभ मानता है, इसलिए उसने भगवान को समझा नहीं है; किन्तु उसने तो राग को हितरूप समझा है। ज्ञानी को तो परमार्थ के आश्रयरूप स्वभाव की भक्ति से पुण्य-पाप का नाश होता है और शुभराग से आंशिक पाप का नाश होता है।