Book Title: Bhaktamara Pravachan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ काव्य ७ त्वत्संस्तवेन भव - सन्तति - सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्त - लोकमलि-नीलमशेषमाशु सूर्यांशु - भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् । ।७ ।। हिन्दी काव्य तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं । ज्यों रवि उगे फटैतत्काल, अलिवत् नील निशा-तम- जाल ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ - ( त्वत्संस्तवेन) आपके स्तवन से ( शरीर - भाजाम् ) देहधारी - संसारी प्राणियों का ( भव-सन्तति- सन्निबद्धं पापम्) भव-भवान्तरों से बँधा हुआ पापकर्म (क्षणात् क्षयं उपैति ) क्षणभर में विनाश को प्राप्त हो जाता है। जैसे कि ( आक्रान्त-लोकं ) समस्त लोक में फैला हुआ (अलिनीलम् भ्रमर के समान काला-घना (शार्वरं अन्धकारम्) रात्रि का अन्धकार (अशेषं आशु) सम्पूर्ण रूप से शीघ्र ही (सूर्यांशु-भिन्नं इव) सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है। अर्थात् हे प्रभो ! जिसतरह सूर्य की किरणों का स्पर्श पाते ही भ्रमरसमूह के समान रात्रि का काला सघन अंधकार विलुप्त हो जाता है, उसीतरह आपके गुणकीर्तन से (स्तवन से) प्राणियों के जन्म-जन्मान्तरों से उपार्जित एवं बँधे हुए पापकर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं। काव्य ७ पर प्रवचन भवरहित भगवान की भक्ति करने वाले भक्त के अन्तरंग में आत्मा का प्रभुत्व भासित होता है, परमात्मा ने पूर्ण सर्वज्ञदशा प्रगट की है, उनका यथार्थ विश्वास जिसने किया, वह वीतरागदृष्टि एवं शान्त परिणामवाला धर्मात्मा होता है। लोग कहते हैं कि यदि केवलज्ञान के अनुसार सबकी पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, तब धर्म का पुरुषार्थ कहाँ रहा ? उसका समाधान इसप्रकार है जिसने सर्वज्ञ स्वभावी ध्रुव आत्मा के काव्य ७ ३९ - लक्ष्य सहित केवलज्ञान को स्वीकार कर लिया, उसे नि:संदेह ज्ञायक स्वभाव की रुचि और आदर होता है। सर्वज्ञ ने केवलज्ञान में जो-जो जैसा देखा जाना है, वह उसीसमय वैसा ही क्रमबद्ध होता है ऐसी श्रद्धा वाले के भव-भ्रमण (संसार) का भाव नहीं रहता। जिसने केवलज्ञान की सत्ता स्वीकार की अथवा क्रमबद्धपर्याय का नियम सम्यक् प्रकार समझ लिया है, वह स्व-सन्मुख ज्ञातादृष्टा होकर पर का अकर्ता हो जाता है। उसकी दृष्टि नित्य निर्मल ज्ञानस्वभाव में चली गई है, इसकारण बंधभाव छूट गया है और उसका मोक्षमार्ग खुल गया है। नि:संदेह इस ज्ञाताभाव में अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है। कोई क्रमबद्धपर्याय को माने, किन्तु उसकी सर्वज्ञता की दृष्टि व अन्तर्मुखी प्रवृत्ति न हो - ऐसा होता ही नहीं है। मैं देह-मन-वाणी या पुण्य-पाप की स्तुति नहीं करता; किन्तु हे सर्वज्ञदेव ! अनन्तगुण सम्पन्न आप ही के गाने गाता हूँ। आप एक समय में तीन काल और तीन लोक की समस्त पर्यायें जानते हैं, ऐसा जिसका विश्वास है, वह धर्मी है। वह भवरहित भगवान का बहुमान कर विनय से कहता है - हे नाथ ! आपकी भक्ति से अनन्तभवों से बँधे हुए पापकर्म और विभावदशा के संस्कार समूल नष्ट होते हैं। कभी पूर्व के उदय से पाप का संयोग हो; किन्तु जब सर्वज्ञ वीतराग कथित भेदज्ञान द्वारा पूर्ण ज्ञानस्वभाव का भान हो जाये, तब पाप नष्ट हो जाते हैं। इसे आपकी भक्ति की महिमा बताना दोष नहीं है। जिसे स्वभाव का भान हो, उस जीव के यदि भक्ति का विकल्प हो तो आपकी भक्ति का, वीतरागदेव की भक्ति का ही विकल्प उठता है और उससे पाप नष्ट होते हैं। जैसे - सूर्य की किरणों से रात्रि जैसा घना अंधकार नष्ट हुए बिना नहीं रहता । श्री पद्मनंदी आचार्य ने भी 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' में ऋषभदेव भगवान की स्तुति की है। उससे ज्ञात होता है कि आचार्यश्री को जहाँ-तहाँ वीतराग प्रभु की ही महिमा दिखती है। एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि हे नाथ ! जब आप मुनिदशा में थे, ध्यानस्थ खड़े थे, तब आपने शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड तप से कर्मों के बादल तोड़ डाले थे; जो कि आकाश में तितर-बितर हो गये हैं । चिदानन्द आत्मा का आदर होने से निविड़-सघन कर्म आवरणरूपी बादल नष्ट हो जाते हैं । पूर्व में अनादि से धाराप्रवाह रूप अखंडित थे, अटूट थे, वे आपके परमार्थपंथरूपी पवन जोर से टूट गये। आकाश में उड़ते हुए खंड-खंड बादलों को देखकर आचार्यश्री उत्प्रेक्षा अलंकार में कहते हैं कि - हे नाथ ! पहले आठ कर्मों के बादल अखंड थे,

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