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भक्तामर प्रवचन
भक्त का मनोरथ केवलज्ञान प्राप्त करने का है। आपके द्वारा निर्दिष्ट मोक्षमार्ग में मेरी श्रद्धा है। पंचमकाल में इस क्षेत्र में केवलज्ञानी का तो अभाव है, इसलिए परमपद की भावना द्वारा केवलज्ञान का गाना गाते हैं। केवलज्ञान श्रुतज्ञान से अनन्त गुना है। मैं आपकी स्तुति करनके की हिम्मत तो करता हूँ, किन्तु उसमें लज्जा आती हैक्योंकि उसका अर्थ है कि जब मेरे अल्पज्ञता मिटकर केवलज्ञान होगा, तब आपके समान हो जाऊँगा; किन्तु वर्तमान में मात्र श्रद्धा है, अभी चारित्र में इतनी सामर्थ्य नहीं है। मुझे अपनी पर्याय की तुच्छता व लघुता और द्रव्य की प्रभुता का भान है। अपनी पामरता को ध्यान में रखकर ही आपकी प्रभुता का वर्णन किया है। __ हे नाथ ! मेरी बुद्धि बहुत अल्प है, तथापि आपकी स्तुति में उद्यमी हुआ हूँ। मेरे पास तो तीन ज्ञान भी नहीं हैं, फिर भी मैं आपका स्तवन करने खड़ा हूँ। मेरी बुद्धि पूर्णस्वभाव का आश्रय करने को उद्यत हुई है, इसलिए आपके प्रगट पूर्णस्वभाव की भक्ति करता हूँ। जैसे बालक चन्द्रबिम्ब को पकड़ने की चेष्टा करता है, उसीप्रकार आपकी स्तुति करने की मेरी चेष्टा भी हास्यास्पद है। मैं केवलज्ञान की अपेक्षा बालक ही हूँ, फिर भी मैं केवलज्ञान-प्रकाश की स्तुति द्वारा आपकी प्रभुता एवं पवित्रता का गाना गाता हूँ। कोई मुझे अविचारी कहे तो भले ही कहो, मुझे इसकी परवाह नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ स्वभाव मेरे सन्मुख ही है, मेरी अन्तर आत्मा में ऐसी दृढ़ता कार्य कर रही है। मुझमें केवलज्ञान की शक्ति है, पर्याय में पूर्णता नहीं हुई; इसलिए पर्याय में पूर्णता प्रगट करने के लिए मैं केवलज्ञान की स्तुति करने के लिए उद्यत हुआ हूँ।
प्रश्न : आत्मा में केवलज्ञान की शक्ति मान लेने पर भी हमारी पर्याय में से अज्ञान दूर क्यों नहीं होता?
उत्तर : प्रकाश होने पर भी अन्धकार रहे - ऐसा कभी नहीं होता । त्रैकालिक सर्वज्ञस्वभावी आत्मा के सन्मुख होकर 'जिस समय जो होना है, वह होगा।' इसका निर्णय जिसने नहीं किया, उसमें केवलज्ञान की अश्रद्धारूप अज्ञानदशा कारण है। इस जगत में केवलज्ञान है, इसका निर्णय जिसे करना हो, उसे उसके स्वरूप का निश्चय होना चाहिए। केवलज्ञान का निर्णय अल्पज्ञता और राग के
काव्य३ आश्रय से नहीं होता; निचली दशा में राग-द्वेष तो होता है, किन्तु उसको गौण कर पूर्ण स्वभाव की तरफ लक्ष्य करे तो केवलज्ञान की प्रतीति हो।
केवलज्ञान का निर्णय करे तो अपने ज्ञानस्वभाव की महिमा का भान हो। स्व और पर की अवस्था क्रमबद्ध होती है - ऐसा निर्णय करने से अनन्त पदार्थों का अहंकार समाप्त हो जाता है। 'मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ - यह निर्णय करना सम्यग्दर्शन है। पर्याय में केवलज्ञान नहीं है, उस अपेक्षा से मैं बालक हूँ। पर्याय में कमजोरी है; अत: तीन काल, तीन लोक के ज्ञाता केवलज्ञान की मैं अपने आत्मघर में स्थापना करता हूँ।
हे जिनेन्द्र ! जिसप्रकार लज्जारहित बालक जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा को पकड़ना चाहता है, उसीप्रकार मैं लजा एवं विवेकरहित आपकी स्तुति करने की
चेष्टा करता हैं। श्रद्धा में केवलज्ञान का यथार्थ स्वरूप है, किन्तु वह पर्याय में प्रगट नहीं हुआ है; इसलिए आपकी स्तुति का यह असफल प्रयत्न किया है।
श्री रामचन्द्रजी ने बाल्यकाल में चन्द्रमा को देखा, उन्होंने उसे पकड़ना चाहा; पर वह हाथ में न आया, तब वे रोने लगे। राजा अपने मंत्री से कहते हैं कि मंत्रीजी ! यह पुरुषोत्तम चरमशरीरी राम क्यों रोता है ? उसका समाधान करो। मंत्री ने ध्यान से देखा कि रामचन्द्रजी चन्द्रमा को सामने देखकर उछलते हैं एवं रोते हैं। इससे मंत्री समझ गया कि श्री राम चन्द्रमा को नीचे उतारना चाहते हैं। उन्होंने श्रीराम को दर्पण में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखाकर जेब में रख दिया, तब श्री रामचन्द्रजी शान्त हो गये।
उसीप्रकार ज्ञानी कहता है कि भाई ! तेरा आत्मा सिद्धपरमात्मा समान है। यद्यपि सिद्ध भगवान ऊपर से नीचे नहीं आते, किन्तु उनकी प्रतीति करे, श्रद्धा करे तो तेरे ज्ञान में केवलज्ञान का प्रतिबिम्ब भासने लगेगा और उसकी लगन के बल से तू अनंतानंत सिद्ध परमात्माओं के पास पहुँच जायेगा।
जिनगुणरयणं महाणिहि लद्ध ण वि किं ण जाइ मिच्छत्तं।
अह लेहेवि णिहाणो किवणाणं पुणो वि दारिहं ।।२५।।। जिनेन्द्र भगवान के गुणरूपी रत्नों का महा भंडार प्राप्त करके भी मिथ्यात्व कैसे नहीं जाता? यह महान आश्चर्य है! अथवा निधान प्राप्त करके भी कंजूस मनुष्य तो दरिद्र ही रहता है - इसमें भी क्या आश्चर्य है। - उपदेश सिद्धांत रत्नमाला, गाथा २५,