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भक्तामर प्रवचन
एकनिमित्तकारणहो, भव्यजीवोंकोतिरनेमें आपकाहीसहाराहै।आपज्ञायकस्वरूप हो, पूर्णानंदस्वरूप हो। आपकी शरण लेनेवालों के संसार नहीं रहता । इन्द्रस्तुति करते हैं कि- हेनाथ!आत्माकाशुद्ध श्रद्धा-ज्ञान-रमणतारूपरत्नत्रयदशा आपने पूर्णकी है,आपके उपदेश में आत्महित की यथार्थध्वनि निकली है।
कितने ही अज्ञानी जीव भक्तामर स्तोत्र को धन की इच्छा से पढ़ते हैं। भगवान की भक्ति से पैसा और सुख मिलेगा - ऐसा जो मानते हैं, वे भूल में हैं। ऐसी लौकिक कामना से तो पापबंध होता है। मूढ़ जीव शरीर का रोग तो टालना चाहते हैं, किन्तु उससे भिन्न आत्मा का ज्ञान करके सम्यग्ज्ञान द्वारा राग-द्वेषअज्ञान का भ्रमरोग नहीं टालते । हे नाथ ! आपके चरण-कमल भवसमुद्ररूपी अगाध जल में पड़े हुए भव्यजीवों को तारने में आधार हैं। जैसे छत पर चढ़ते हुए हाथ में रस्सी पकड़ रखी हो तो नीचे नहीं गिरते, वैसे ही हमको आत्मा का यथार्थ भान है और शुभराग के समय आपका आलंबन है। संसार का, शरीर का
और भोगों का आलंबन बिलकुल नहीं है; अत: हमें भव-सागर में डूबने का डर नहीं है।
सच्चा भक्त ऐसा समझकर ही भगवान को सम्यक् प्रकार से नमन करता है।
काव्य ३ बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ।।३।।
हिन्दी काव्य विबुध-वंद्य-पद मैंमति-हीन, होनिलज थुति-मनसा कीन।
जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहै, शशि-मंडल बालक ही चहै।।३।।
अन्वयार्थ - (विबुधार्चित-पादपीठ !) सुरेन्द्रों द्वारा पूजित है पादपीठ (चरण) या सिंहासन जिनका - ऐसे हे जिनेश्वरदेव ! (बुद्ध्या विना अपि) बुद्धिविहीन होने पर भी (अहं स्तोतुं समुद्यत-मति:) मैं (आपकी) स्तुति करने के लिए तत्पर हुआ हूँ (इति मम-विगत-त्रपः) यह मेरी निर्लजता या धृष्टता ही है। (जल-संस्थितं इन्दुबिम्बम्) जल में पड़े हुए चन्द्र के प्रतिबिम्ब को (बालं विहाय अन्य: क: जन: सहसा ग्रहीतुं इच्छति) नादान बालक के सिवाय अन्य कौन ग्रहण करना चाहेगा, अर्थात् कोई भी समझदार व्यक्ति चन्द्रप्रतिबिम्ब को पकड़ने की इच्छा नहीं करेगा।
काव्य३पर प्रवचन देव-देवेन्द्रों द्वारा पूजित हैं चरण-कमल जिनके - ऐसे हे जिनेश्वर देव ! बुद्धिहीन होने पर भी मैं आपकी स्तुति करने के लिए तत्पर हुआ हूँ, यह मेरी निर्लज्जता व धृष्टता ही है। भला जल में दृश्यमान चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पकड़ने की इच्छा एक अबोध बालक के अतिरिक्त और कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। ___ यहाँ मुनिवर श्री मानतुङ्गाचार्य कहते हैं कि - हे जिनेन्द्र देव ! आप परम पूज्य देवाधिदेव हैं। तभी तो देवगण आपके पावन चरणों की भक्तिपूर्वक अर्चना करते हैं। लोक-व्यवहार तो ऐसा है कि जिस कार्य में अपनी बुद्धि की पहुँच हो, वही कार्य करना उचित है; परन्तु आपकी भक्ति-स्तुति करने का अदम्य उत्साह
अहा हा ! आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यमय अमृतस्वरूप है, किन्तु अज्ञानी को इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। इसकारण 'मैं ज्ञान ही हूँ' - ऐसा नहीं जानता, किन्तु 'मैं रागवाला या जहरवाला हूँ' - ऐसा मानता है। इसीकारण वह राग-विकार में स्वरूपपने प्रवर्तन करता है, परन्तु भाई ! राग तो जहर है। बापू ! जहर पीते-पीते अमृत का स्वाद नहीं आयेगा। राग रोग है और 'राग मेरा है' - ऐसी मिथ्या मान्यता महारोग है।
___ - पूज्य श्री कानजी स्वामी प्रवचनरत्नाकर, भाग:३, पृष्ठ:३४