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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥९६२॥
११शतके उद्देशः१. ॥९६२॥
SEARCCRECENCE
| हेट्ठा विच्छिन्ने मज्झे संखित्ते जहा मत्तमसए पढमुद्देसए जाव अंतं करेंति । अलोए ण भंते ! किंसठिए पन्नत्ते ?,।
गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पन्नत्ते ।। अहेलोगखत्तलोए ण भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणि यव्वं जाव अद्भासमए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा., एवं चेव, एवं | उड्डलोयखेत्तलोएवि, नवरं अरूवी छविहा, अद्धासमओ नत्थि।।
म.] हे भगवन् ! तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक केवा संस्थाने छ ? [उ०] हे गौतम ! ते झालरने आकारे ले. [प्र.] हे भगवन् ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक केवा आकारे छे १ [उ.] हे गौतम! उभा मृदंगने आकारे छे. [प्र०] हे भगवन् ! लोक केवा आकारे संस्थित छ ? [उ०] हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठकने आकारे संस्थित छे, ते आ प्रमाणे-"नीचे पहोळो, मध्यभागमां संक्षित-संकीर्ण"-इत्यादि सातमा शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे कहे. (ते लोकने उत्पन्न ज्ञान दर्शनने धारण करनारा केवलज्ञानी जाणे छे अने | त्यार पछी सिद्ध थाय छे) यावद् 'सर्व दुःखोनो अन्त करे छे'. [प्र०] हे भगवन् ! अलोक केवा आकारे कह्यो छे ? [उ.] हे गौतम! अलोक पोला गोळाने आकार कह्यो छे. [प्र] हे भगवन् ! अधोलोकक्षेत्रलोक शुं जीवरूप छ, जीवदेशरूप छ, जीवप्रदेशरूप छे इत्यादि ? [३०] हे गौतम ! जेम एन्द्री दिशा संबन्धे का छे ते प्रमाणे सर्व अहिं जाणवू. यावद् अद्धासमय (काल) रूप छे'. [प्र.] हे भगवन् ! तिर्यग्लोक शुं जीवरूप छे इत्यादि ? [उ.] पूर्ववत् जाणवू. ए प्रमाणे ऊर्बलोकक्षेत्रलोक संबन्धे पण जाण; परन्तु | विशेष ए छे के ऊर्बलोकमा अरूपी द्रव्य छ प्रकारे छे, कारण के त्यां अद्धा समय नथी.
लोए ण भंते ! किं जीवा जहा बितियसए अस्थिउद्देसए लोयागासे, नवरं अरूवी सत्तवि जाव अहम्मत्थि
PETECRECIRCLOS
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