________________
२७. नवरं-ठिती दो सागरोबमाई, सेसं तं चेव ।
(श० १८१५४) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १८१५५)
२७. वरं स्थिति में विशेष है, दोय सागर नी स्थित्ति ।
शेष गंगदत्त नी परै, सेवं भंते ! तहत्ति ।। २८. अंक इक सय बयांसी तणों, त्रिणसौ तीहंतरमी ढाल ।
भिक्षु भारोमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। २९. उगणीसै तेवीस में, श्रावण सुदि अष्टम सार । सतर संतालिस मुनि अज्जा, बीदासर सुखकार ।।
अष्टादशशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१८॥२॥
ढाल:३७४
१. द्वितीयोद्देशके कार्तिकस्यान्तक्रियोक्ता, तृतीये तु पृथिव्यादेः सोच्यते।
(वृ० प० ७३९) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्था
वण्णओ । गुणसिलए चेइए । ३. वण्णओ जाव परिसा पडिगया ।
४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महा
वीरस्स अंतेवासी ५. मागंदियपुत्ते नाम अणगारे पगइभद्दए-जहा मंडिय
पुत्ते' (३।१३४)। ६. जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी- (श० १८१५६)
___७. से नूणं भंते ! काउलेस्से पुढविकाइए
दूहा १. द्वितीये अंतक्रिया कहो, कात्तिक नी सविचार ।
तृतीय पृथिव्यादिक तणों, तेहिज छै अधिकार ।। २. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह नाम ।
वर्णक योग्य हुँतो प्रवर, गुण सिल चैत्य सुठाम ।। ३. ते पिण वर्णक योग्य है, यावत परिषद जान ।
निज स्थानक पाछी गई, वीर तणी सुण वान ।। ४. तिण काले नै तिण समय, भगवंत श्री महावीर।
जाव सीस तेहनों पवर, अंतेवासी धीर ।। ५. माकंदी-सुत नाम तसु, गृह तजवे अणगार ।
प्रकृति स्वभावे भद्र है, जिम मंडित-सुत सार ।। ६. जाव सेव करतो छतो, बोलै इहविधि वाय।
पूर्वक विनय सुविधि करी, प्रश्न करै मुनिराय ।। ७. *हे प्रभु! निश्चै करी रे हां, णं वाक्यालंकार'।
मेरा स्वाम जी! कापोतलेसी छै तिको रे हां, पृथ्वीकायिक धार ।
मेरा स्वाम जी ! ८. कापोतलेसी पृथ्वी थकी रे हां, अंतर रहित कहेह ।
नीकली ने जे मनुष्य नों रे हां, शरीर प्रति पामेह ।। ९. मनुष्य तणों तनु पामने रे हां, केवल बोधि बुज्झेह ।
केवल बोधि बुज्झी करी रे हां, तठा पछै सिझेह ।। १०. जाव करै अंत दुख तणो रे हां? जिन कहै हंता जेह।
सांभल महामुनि ! कापोत पृथ्वीकाइयो रे हां, यावत अंत करेह ।।
सांभल महामुनि ! *लय : किण-किण नारी सिर घड़ो १. प्रस्तुत सन्दर्भ में पाठ है 'नूणं'। टीका में इसकी कोई व्याख्या नहीं है। संभव है, जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में न और णं दो शब्द हों। उसी को आधार मानकर उन्होंने णं की व्याख्या की है, ऐसा प्रतीत होता है।
८, काउलेस्सेहितो पुढविकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता
माणुसं विग्गहं लभति, ९. लभित्ता केवलं बोहि बुज्झति, बुज्झित्ता तओ पच्छा
सिज्झति १०. जाव सव्वदुक्खाणं अत करेति? हंता मागंदियपुत्ता !
काउलेस्से पुढविकाइए जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति ।
(श० १८१५७)
१. मंडितपुत्र के प्रसंग में रोहक (श० ११२८८) की
भोलावण दी गई है।
श०१८, उ०३, ढाल ३७३,३७४ १३५
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org