Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 361
________________ २१. नवरं छठा उद्देश में, संपाउणइ आख्यातो जी। आहार कर भणवो इहां, तिमहिज शेष विख्यातो जी। २१. नवरं-तेहि संपाउणणा, इमेहिं आहारो भण्णति, सेसं तं व। (श० २०४३) सोरठा २२. छठे उदेशे ख्यात, इण वचने करिने इहां। कहिवं इम अवदात, नवरं आहार संघात ए॥ २३. पूर्व ऊपजी जेह, पाछै आहार कर तिको। फून पूर्व आहारेह, पाछै ऊपजवं प्रमुख ।। २४. एहनों ए छै अर्थ, कंदुक दडाज सारखी। गति करिवेज तदर्थ, समुद्घातगामी तिको ।। २५. ते पूर्व ऊपजेह, उत्पत्ति स्थानक गमन कर। पाछै आहार करेह, तनु प्रयोग पुद्गल ग्रहै ।। २६. गति ईलका सरीस, समुद्घातगामी तिको। उत्पत्ति क्षेत्र जगीस, प्रदेश प्रक्षेवपण करी ।। २७. तदनंतर इम .जाण, प्रदेश पूर्व तनु विषे । रह्या तिके पहिछाण, उत्पत्तिक्षेत्रे ऊपजै ।। २२,२३. 'एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठद्दे से' त्ति अनेन च यत्सूचितं तदिदं पुवि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा पुवि वा आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्जे' त्यादि, (वृ०प०७९०) २४,२५. अस्य चायमर्थ:-- यो गेन्दुकसंनिभसमुद्घातगामी स पूर्व समुत्पद्यते - तत्र गच्छतीत्यर्थः पश्चादाहारयति-शरीरप्रायोग्यान् पुद्गलान् गहाणातीत्यर्थः अत उच्यते पुधि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्ज' त्ति, (वृ०प०७९०) २६. यः पुनरीलिकासन्निभसमुद्घातगामी स पूर्वमाहारयति---उत्पत्तिक्षेत्रे प्रदेशप्रक्षेपणेनाहारं गृह्णातीति । (व०प०७९०) २७. तत्समनन्तरं च प्राक्तनशरीरस्थप्रदेशानुत्पत्तिक्षेत्रे संहरति अत उच्यते 'पुट्विं आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्ज' त्ति । (वृ० प० ७९०) २८. पुढविक्काइए णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा २९. समोहए, समोहणित्ता जे भविए इसाणे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए । ३०. एवं चेव । एवं जाव ईसीपब्भाराए उववाएयब्वो। (श० २०४४) ३१. पुढविक्काइए णं भंते ! सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवीए अंतरा ३२. समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपब्भाराए, ३३. एवं एतेणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा ३४. समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपब्भाराए उववाएयब्वो। (श. २०१४५) २८. *पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी न्हालो जी। सक्करप्रभा पृथ्वी दूसरी, ए बिहं तेण बिचालो जी।। २९. समुद्घात करने तिको, ईशान कल्प विषेहो जी। ऊपजवा योग्य जेह छै, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। ३०. इमहिज पूर्वली परै, यावत ईसीप्पभारा जी। पृथ्वी लगै उपजाविवो, पूर्व रीत प्रकारा जी। ३१. पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! सक्करप्रभा न्हालो जी। वालुकप्रभा तीसरी, ए बिहं तणे बिचालो जी ।। ३२. समुद्घात करिने तिको, सुधर्म कल्प विषेहो जी। ऊपजवा जे जोग्य है, जाव सिद्धशिला उपजेहो जी।। ३३. इम एणे अनुक्रमे करी, यावत तमा निहालो जी। अधोसप्तमी पृथ्वी वलि, ए बिहुं तण बिचालो जी। ३४. समुद्घात करिने तिको, सौधर्म उत्पत्ति जोगो जी। यावत सिद्धशिला विषे, । ऊपजाविवो सुप्रयोगो जी॥ ३५. पृथ्वीकायिक हे प्रभु ! सौधर्म ईशाण न्हालो जी। सनतकुमार माहिंद्र जे, ए बिहुं कल्प बिचालो जी ।। ३६. समुद्धात करिनै तिको, महि रत्नप्रभा नै विषेहो जी। ऊपजवा ने योग्य जे, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। ३७. ते प्रभु ! पहिला ऊपजी. पाछै आहार करेहो जी। शेष तिमज यावत नलि, तिण अर्थे जाव निखेहो जी ।। *लय : हो जी राय इसो मन चितवं ३५. पुढविक्काइए णं भंते ! मोहम्मीसाणाणं सणकुमार माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा ३६. समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, ३७. से णं भंते ! कि पुब्बि उबवज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा ? सेसं त चेव जाव से तेणठेणं जाव श० २०, उ०६, ढा० ४०३ ३४३ Jain Education Intemational cation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422