Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 417
________________ त्रयोविंशतितम शतक ढाल : ४११ १. व्याख्यातं द्वाविंशं शतम्, अथावसरायातं त्रयोविशं शतमारभ्यते, (वृ० प.८०४) २. नमो सुयदेवयाए भगवईए। (वृ०प० ८०४) शा दूहा १. ए बावीसम शत कह्य, अथ अवसर आयात । कहियै शत तेवीसमुं, अर्थ थकी अवदात ।। २. नमस्कार थावो प्रवर, श्रुत देवी सुखकार' । ज्ञानवती ए भगवती, जिन वाणी जयकार ।। ३. शत तेवीसम आदि हिव, वर उद्देस उदार । सखर वर्ग संग्रह अर्थ, कहियै गाथा सार ।। विषय सूची ४. आलुक मूलक आदि जे, साधारण तनु भेद । दश उद्देशक रूप जे, प्रथम वर्ग संवेद ।। ३. अस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथा (वृ० १०८०४) ५. अनंतकाय लोही प्रमुख, द्वितीय वर्ग अवधार । अनंतकाय अवकादि जे, तृतीय वर्ग अधिकार ।। ६. पाठा प्रमुखज वनस्पति, तूर्य वर्ग अभिधान । माष मूंगफली प्रमुख वल्लि, पंचम वर्ग पिछान ।। ४. १. आलुय 'आलुय' त्ति आलुकमूलकादिसाधारणशरीरवनस्पतिभेदविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः, (वृ०प० ८०५) ५.२. लोही ३. अवए, 'लोही' ति लोहीप्रभूत्यनन्तकायिकविषयो द्वितीयः 'अवई' त्ति अवककवकप्रभूत्यनन्तकायिकभेदविषयस्तृतीयः (वृ० प०८०५) ६. ४. पाढा तह ५. मासवण्णि-वल्ली य। 'पाढ' त्ति पाठामृगवालुङ्कीमधुररसादिवनस्पतिभेदविषयश्चतुर्थः 'मासवन्नीमुग्गवन्नी य' ति माषपर्णीमुद्गपर्णीप्रभूतिवल्लीविशेषविषयः पञ्चमः तन्नामक एवेति, . (वृ०प०८०५) ७. पंचेते दसवग्गा, पन्नासं होंति उद्देसा ॥१॥ पञ्चैतेऽनन्तरोक्ता दशोद्देशकप्रमाणा वर्गा दशवर्गाः यत एवमतः पञ्चाशदुद्देशका भवन्तीह शत इति । (वृ० प० ८०५) ८. रायगिहे जाव एवं वयासी--- ७. पांच वर्ग ए परवरा, इक-इक वर्ग विषेह । दश-दश उद्देसा हुवै, इम पच्चास कहेह ।। ९. अह भंते ! आलुय- मूलग- सिंगबेर-हलिद्दा-हरु कंडरिय-जारु-छीरबिरालि-किट्ठि-कंदु-कण्हाकडभु ८. प्रथम वर्ग प्रारंभिय, नगर राजगृह माय । यावत गोतम वीर प्रति, वदै विनय करि वाय ।। आलू आदि को पृच्छा *शत तेवीसम अर्थ अनोपम ।। (ध्रुपदं) ९. अथ प्रभु ! आलुय मूलो आदो, "हालिद रूरक वणस्सइ विशेष । कंडरिय जारू नैं क्षीर विराली, किट्टि कुंदु कण्हकडभू सुविशेष ।। १. टीकाकार अभयदेवसूरि को प्राप्त आदर्श में 'णमो सुयदेवयाए' पाठ था। उन्होंने अपनी टीका में उसे उद्धृत किया है। जयाचार्य ने संभवतः टीका के आधार पर यह जोड़ की है। अंगसुत्ताणि भाग २ में न तो उक्त पाठ मूल में रखा है और न पाठांतर में ही इस सम्बन्ध में कोई संकेत दिया गया है।' *लय : घोडी री अथवा मेघकुंवर हाथी रा भव में श० २३, वर्ग १, ढा० ४११ ३९९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only Al Use Only www.jainelibrary.org

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