Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 373
________________ हीज छ । अन पादपोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान-ए बे भेदे पंडितमरण कह्या, ते मुख्य वचने करी जाणवा । तथा आराधना तीन प्रकार नी ज्ञान, दर्शन, चारित्र नी कही। भगवती शतक ८, उ० १०, सू० ४५१, ए पिण मुख्य वचने करि जाणवी । अनै वलि तिणहिज उदेशे श्रुत सम्यक्त्व रहित, शील क्रिया सहित नै देश आराधक कह्यो। तिहां वृत्तिकार कह्यो-ए बालतपस्वी थोड़ो अंश मोक्ष मार्ग नों आराधै। देश आराधक नों ए अर्थ कियो, ते माटै जिम ज्ञानरहित शीलसहित बालतपस्वी मोक्ष मार्ग नों अंश आराध, ते देश आराधक छै; पिण तीन आराधना में नथी। तिम द्रव्यलिंगी नै आधार प्रवचन-सूत्र ते तीर्थ नो अंश संभव, पिण ते च्यार तीर्थ में नथी। सोरठा ७४. वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्यै न्याय तसु । एम संभवै सार, फुन बहुश्रुत कहै तेह सत्य ।। ७५. वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्य इम कह्यो । पिण चिहुं तीर्थ सार, रहिस्य इम आख्यो नथी ।। ७६. ते माटै अवधार, तीर्थ प्रवचन सूत्र छ । ___कदही संघ आधार, द्रव्यलिंगी आधार कद ।।' (ज० स०) ७७. *जिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि । वर्ष सहस्र इकवीस आपरो, तीर्थ रहिस्यै ताहि ।। ७८. तिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, जेह अनागत न्हाल । चरम तीर्थंकर नों तीर्थ ते, रहिस्य कितनु काल ? ७७. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एक्कवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति, ७८. तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमे स्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतिय कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जावतिए णं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाई संखेज्जाई आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स तित्थे अणुसज्जिस्सति। (श०२०७३) ८०. 'कोसलियम्स' त्ति कोशलदेशे जातस्य, 'जिण परियाए' त्ति केवलिपर्याय: स च बर्ससहस्रन्यूनं पूर्वलक्षमिति । (वृ०प०७९३) ७९. जिन कहै जिन पर्याय ऋषभ नों,तेतलु संखेज काल । चरम तीर्थंकर नुं आगामिक, तीर्थ रहिस्यै न्हाल । सोरठा ८०. पूर्व लक्ष प्रमाण, एक सहस्र वर्ष ऊण जे । ऋषभदेव नुं जाण, केवल नुं पर्याय ए। ७९. ५१. काल एतलो जोय, चउवीसी आगामिके ।। चरम तीर्थंकर होय, तीर्थ रहिस्यै तेहगें ।। ८२. तीर्थप्रस्तावादिदमाह (वृ०प० ७९३) ८३. तित्थं भंते ! तित्थं ? तित्थगरे तित्थं ? ५२. तीर्थ नां प्रस्ताव थी, तीर्थ नों अधिकार। पूछ गोयम गणहरू, श्रीजिन उत्तर सार ।। ५३. *तीर्थ प्रति प्रभु ! तीर्थ कहिये, के तीर्थंकर देव । __तेह प्रतै तीर्थ कहियै छै ? जिन भाखै सुण भेव ।। ८४. अरिहंत तावत निश्चै करिने, तीर्थंकर गुण आप्त । चार वर्ण वलि तीर्थ कहिये, क्षमादि गुण करि व्याप्त ।। *लय : रूड़े चंद निहाल रे नव रंग ८४,८५. गोयमा ! अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, 'तीर्थ' पुनः 'चाउबन्नाइन्ने समणसंघे' त्ति चत्वारो श०२०, उ०८, ढा० ४०५ ३५५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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