Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 376
________________ ८,९. उत्तरगुणलद्धि खममाणस्स 'उत्तरगुणद्धि' ति उत्तरगुणा:--पिण्डविशुद्धयादयस्तेषु चेह प्रक्रमात्तपो गृह्यते (वृ०प० ७९५) ८. उत्तरगुण जे न्हाल, पिंडविसुद्धयादिक सही। तेह विषे सुविशाल, इहां तप प्रति ग्रहिवू वही ।। ९. ते उत्तरगुण लब्धि, तपोलब्धि सह मान नैं । इतरै तपो समृद्धि, करता छता गुणवान नैं ।। १०. विद्याचारण लब्धि, एहवे नामे लब्धि ऊपजै । तिण अर्थेज समृद्धि, जाव विद्याचारण सबै ।। १०. विज्जाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जइ। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ -विज्जाचारणेविज्जाचारणे। (श० २०८०) ११. विज्जाचारणस्स णं भंते ! कह सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते? ११. विद्याचारण जाण, तमु शीघ्र गति कहवी कही। शीघ्र गति नों पिछाण, विषय किसी तेहनी सही? गीतक छंद १२. गति विषय गति गोचर का, ते गति अभावे पिण सही। गति शीघ्र गोचरभूत खेत्रज, गति विषय तेहनें कही ।। वा०-कह सीहा गई–केहवी शीघ्र गति उतावली चालवा नी क्रिया ? कहं सीहे गइविसए केहq शीघ्र छ गति नों विषय ? शीघ्रपणे करी ते गति नों विषय पिण उपचार थकी शीघ्र कह्य। गति विषय गति-गोघर ते गमन नै अभावे पिण शीघ्र गतिगोचर भूखेत्र इत्यर्थः । वा०—'कहं सीहा गइ' त्ति कीदृशी शीघ्रा 'गतिः' गमनक्रिया 'कहं सीहे गइविसए' त्ति कीदृशः शीघ्रो गतिविषयः शीघ्रत्वेन तद्विषयोऽप्युपचारात् शीघ्र उक्तः, 'गतिविषयः' गतिगोचरः, गमनाभावेऽपि शीघ्रगतिगोचरभूतं क्षेत्रं किम् ? इत्यर्थः, (वृ०प० ७९५) १३. गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसे साहिए परिक्खेवेणं । १४. देवे णं महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव इणामेव १५. त्ति कट्ट केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं १३. *जंबूद्वीपज एह, योजन लक्ष नों जाणिय । साधिक त्रिगुणी कहेह, तास परिधि पहिछाणियै ।। १४. मोटो ऋद्धिवंत देव, जाव महाईश्वर वही । जाव इणामेव भेव, इतरी वेला आवं सही ।। १५. एम करीनै जेह, केवलकल्प संपूर्ण ही। जंबूद्वीप प्रतेह, दोलो फिरवा लागो सही ।। १६. चिबठी तीन बजाय, इतली वेला मांहै जिको। तीन वार फिरै ताय, पाछो शीघ्र आवै तिको ।। १७. विद्याचारण नींज, एहवी उतावली गति कही। वलि तेहवो तेहनोज, शीघ्रज गति नों विषय ही ।। १८. विद्याचारण स्वाम, तस् तिरछी गति विषय ही। आखी कितली आम, गमन शक्ति रूप तिण लही? १९. इक उत्पात करेह, एक वार उपड़वे करी। गिरि मानुषोत्तरेह, लिये विश्राम हरष धरी ।। २०. गिर मानुषोत्तरेह, समोसरण करिने फिरी । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रतै वांदी करी ।। २१. बीजे उत्पातेह, बीजी वार उपड़वै करी । नंदीश्वर द्वीपेह, लिय विश्राम हरष धरी ।। २२. नंदोश्वर दीपेह, जेह विश्राम लेइ करी । तिहां चैत्य वांदेह, चैत्य प्रत वांदी वरी ।। *लय : स्वामी भाख बे, सुण विभीषण बात १६. तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, १७. विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । (श० २०८१) १८. विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसए पण्णते? १९. गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति, २०. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता २१. बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेति, २२. करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता ३५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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