Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोरठा २७. किण जिन में वरतार, वलि किण जिन अंतर विषे।
कालिक अंग इग्यार, विच्छेद क्षय इम पूछियो ।।
२७. 'कस्स कहि कालियसुयस्स वोच्छेए पन्नत्ते' त्ति
कस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे कयोजिनयोरन्तरे 'कालिकश्रुतस्य' एकादशानीरूपस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्नः, (व०प० ७९२)
२८. जिन भाखै तेबीस, जिन नां अंतर नै विषे ।
पहिला आठ जगीस, वलि छहला पिण आठ जे । २९. ए सोल सुविचार, जिन नां अंतर नै विषे ।
कालिक अंग इग्यार, तेहन विच्छेद क्षय नथी ।। ३०. मज्झिम बिचला सात, जे जिन नां अंतर विषे ।
अंग एकादश ख्यात, विच्छेद क्षय तेहन का ॥
वा० -सुविधि-शीतल ए बिहु जिन नां अन्तर नै विषे व्यवछेद थयं । इम आगल छह जिन नां अंतर नै विषे जाणवो। ३१. इहां कालिक व्यवछेद, पूछ्ये पिणज अपृष्ट नुं । ___ अव्यवछेद संवेद, उत्तर ए किण कारणे ।। ३२. विच्छेद तास विपक्ष, अविच्छेद जाण्ये छते।
सुलभ हुवे प्रत्यक्ष, बोध विवक्षित अर्थ नुं ।।
वा०-इहां वलि कालिक सूत्र नों व्यवच्छेद पूछ्ये छते पिण जे अणपूछया अव्यवच्छेद नों अभिधान ते व्यवच्छेद नो विपक्ष अव्यवच्छेद जाणिये छते वांछित अर्थ नुं जाणिवू सोहिलो हुदै, इम करीनै अणपूछया अव्यवच्छेद नें उत्तर दियो । अर्ने दृष्टिवाद नी अपेक्षाय सर्व पिण जिन नां अन्तर नै विषे पिण केवल सात अन्तर नै विषे हीज नहीं। किहांयक कितोक पिण काल दृष्टिवाद नों व्यवच्छेद थयुं । व्यवच्छेद ना अधिकार थकीहीज आगल इम कहै छै
पूर्वगत पद ३३. *जंबूद्वीप नां भरत विषे प्रभु ! ए अवसप्पिणी मांहि ।
काल कितुं देवानुप्रिया न, पूर्व रहिस्ये ताहि ?
३१. इह च कालिकस्य व्यवच्छेदेऽपि पृष्टे यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्याभिधानं
(वृ०प० ७९३) ३२. तद्विपक्षज्ञापने सति विवक्षितार्थबोधनं सुकर
भवतीति कृत्वा कृतमिति, (वृ० प० ७९३) वा०—'एत्थ णं' ति ‘एतेषु' प्रज्ञापकेनोपदर्यमानेषु जिनान्तरेषु कालिकश्रुतस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः, दृष्टिवादापेक्षया त्वाह-'सव्वत्थवि णं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए' त्ति 'सर्वत्रापि' सर्वेष्वपि जिनान्तरेषु न केवलं सप्तस्वेव क्वचित् कियन्तमपि कालं व्यवच्छिन्नो दृष्टिवाद इति । व्यवच्छेदाधिकारादेवेदमाह
(वृ०प० ७९३)
३४. जिन कहै जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि ।
एक सहस वर्ष लगैज म्हारो, रहिस्यै पूर्व ताहि ।।
३५. जिम प्रभु ! जंबूद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी मांहि ।
सहंस वर्ष देवानुप्रिया नों, पूर्व रहिस्यै ताहि ।।
३३. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे - ओसप्पिणीए देवाणु प्पियाणं केवतियं कालं पुव्वगए
अणुसज्जिस्सति ? ३४. गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओस
प्पिणीए ममं एगं वाससहस्स पुव्वगए अणुसज्जिस्सति ।
(श० २०७०) ३५. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे
ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं वाससहस्सं पुव्वगए
अणुसज्जिस्सति, ३६. तहा णं भंते ! जबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे
ओसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थगराणं केवतियं कालं
पुन्वगए अणुसज्जित्था ? ३७. गोयमा ! अत्थेगतियाणं संखेज्जं कालं, अत्थेगतियाणं असंखेज्ज कालं।
(श० २०७१) 'अत्थेगइयाणं संखेज्जं कालं' ति पश्चानुपूर्त्या पार्श्वनाथादीनां संख्यातं कालं 'अत्थेगइयाणं असंखेज्जं कालं' ति ऋषभादीनाम् । (व०प०७९३)
३६. तिम प्रभु ! जंबुद्वीप भरत में, ए अवसप्पिणी न्हाल ।
पूर्व ज्ञान शेष जिनवर नु, रह्य केतलो काल ?
३७. जिन कहै पश्चानुपूर्वी करि, पार्श्व प्रमुख नों अंक ।
केयक जिन नों काल संख्यातो, ऋषभादिक नों असंख ।।
*लय : रूडै चंद निहाल रे नव रंग
श.२०, उ.८, ढा.४०५ ३५१
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