Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 364
________________ ढाल : ४०४ १. छठे उदेशे आखियो, पृथिव्यादिक नों आहार । कर्म बंध व तेहथी, सप्तम बंध प्रकार ।। बंध पद २. कतिविध हे भगवंतजी! बंधे पन्नत्तेह ? तिविहे बंधे गोयमा ! इम प्रभुवर पभणेह ॥ ३. जीव प्रयोगज बंध धुर, जीव तणे सुविचार । प्रयोग कहितां मन प्रमुख व्यापारे करि धार ।। ४. बंध कर्म पुद्गल तणों, आत्म-प्रदेश संघात । संश्लेष बद्ध स्पृष्ट फुन, निधत्त निकाच थात ।। ५. द्वितीय अनंतर बंध फून, पहिले समये जेह । कर्म बंध वत्र्तं तिको, दूजो भेद कहेह ।। ६. द्वितीयादिक समया विषे, जेह बंध वर्तेह? कह्यो परम्पर बंध ते, तृतीय भेद छै एह ।। १. षष्ठोद्देशके पृथिव्यादीनामाहारो निरूपितः, स च कर्मणो बन्ध एव भवतीति सप्तमे बन्धो निरूप्यते, (वृ०प०७९०) २. कतिविहे णं भंते ! बंधे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा --- ३,४. जीवप्पयोगबंधे, 'जीवप्पओगबंधे' त्ति जीवस्य प्रयोगेण-मनः प्रभृतिव्यापारेण बन्धः-कर्मपुदलानामात्मप्रदेशेषु संश्लेषो बद्धस्पृष्टादिभावकरणं जीवप्रयोगबन्धः, (वृ० प०७९१) ५. अणंतरबंधे, 'अणंतरबंधे, त्ति येषां पुदलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो वर्तते तेषामनन्तरबन्ध उच्यते, (वृ० प०७९१) ६. परंपरबंधे। (श०२०१५२) येषां तु बद्धानां द्वितीयादि: समयो वर्त्तते तेषां परम्परबन्ध इति, (वृ प० ७९१) ७. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं । (श० २०१५३) ८. नाणावरणिज्जस्स ण भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा जीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे । (श० २०१५४) ९. नेरइयाणं भंते ! नाणाबरणज्जिस्स कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव । १०. एवं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव अंतराइयस्स । (श० २०१५५) ११. नाणावरणिज्जोदयस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते एवं चेव । ७. *नारक ने भगवंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? इमहिज तीन प्रकार ए, इम जाव वैमानिक धार ए।। ८. ज्ञानावरणी कर्म नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? जिन भाखै त्रिविधेह ए, नाम पूर्व भाख्या जेह ए ।। ९. नारक ने भगवान ! ए, ज्ञानावरणी कर्म नों जान ए। कतिविध बंध सुजाण ए? एवं चेव त्रिविध पहिछाण ए।। १०. इम जाव वैमानिक संध ए, इम जाव अंतराय बंध ए। दंडक चउबीस प्रसिद्ध ए, बंध अष्ट कर्म नों त्रिविद्ध ए ।। ११. ज्ञानावरणी उदय नों बंध ए, प्रभु ! किते प्रकारे संध ए? एवं चेव कहाय ए, बंध तीन प्रकारे थाय ए॥ सोरठा १२. ज्ञानावरणी जाण, उदय रूप जे कर्म नों। त्रिविध बंध पहिछाण, इतलै उदैज पामियो।। १२. 'णाणावरणिज्जोदयस्स' त्ति 'ज्ञानावरणीयोदयस्य' ज्ञानावरणीयोदयरूपस्य कर्मण उदयप्राप्त ज्ञानावरणीयकर्मण इत्यर्थः, (वृ०५०७९१) १३. अस्य च बन्धो भूतभावापेक्षयेति, (वृ०प० ७९१) १३. ए ज्ञानावरणी ताय, उदय रूप नों बंध जे। भूत भाव अपेक्षाय, प्रश्न कियो जणाय छै ।। *लय : जाण छ राय तू बातरा ए ३४६ भगवती जोड़ Jain Education Intenational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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