Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 366
________________ २९. आभिणिबोहियनाणस्स जाव केवलनाणस्स, मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स विभंगनाणस्स , ३०. एवं आभिणिबोहियनाणविसयस्स भंते ! कतिविहे बंधे पण्णत्ते जाव केवलनाण विसयस्स, २९. मति ज्ञान नों पेख ए, जाव केवलज्ञान नों देख ए। मति श्रुत विभंग अनाण ए, तसु त्रिविध बंध पिछाण ए।। ३०. मति ज्ञान विषय नों भदंत ! ए, ओ तो कतिविध बंध कहत ए? जावत केवलनाण ए, तेहनों विषय नुं बंध सुजाण ए।। ३१. मति श्रुत विभंग अनाण ए, फुन तास विषय नों पिछाण ए। ए सर्व पदां नों संध ए, कह्यो तीन प्रकारे बंध ए॥ ३२. ए सगला पद सोय ए, बंध चउबीस दंडके होय ए। नवरं इतरो विशेख ए, कहिवं जेहने जेह छै लेख ए।। ३३. जाव वैमानिक जाण ए, तस विभंग अनाण पिछाण ए। तेहनी विषय नों भदंत ! ए, किते प्रकारे बंध कहंत ए? ३१. मइअण्णाणविसयस्स सुयअण्णाणविसयस्स विभंगनाण विसयस्स-एएसि सब्वेसि पदाणं तिविहे बंधे पण्णत्ते। ३२. सव्वेवेते चउव्वीसं दंडगा भाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि । ३३. जाव (श० २०१५९) वेमाणियाणं भंते ! विभंगनाणविसयस्स कतिविहे बंधे पण्णत्ते? ३४. गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा- जीवप्पयोगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे। (श० २०६०) ३४. जिन कहै त्रिण प्रकार ए, बंध जीव प्रयोग विचार ए। वलि अनंतर बंध ए, फुन बंध परंपर संघ ए।। सोरठा ३५. वृत्ति विषे इम वाय, समदृष्टी इत्यादि जे। तेहन बंध किम थाय ? उत्तर तस् इहविध कह्यो ।। ३६. बंध शब्द करि ताहि, कर्म रूप पुद्गल तणुं बंध विवक्ष्यो नाहि, संबंधमात्रज वांछियो ।। ३७. जीव तणों अवलोय, दृष्टयादिक जे धर्म करि सहित तिके छ सोय, जीव प्रयोग बंधादि ते ॥ ३८. संबंधमात्रज एह, फुन जीव वीर्य उत्पत्ति थकी। मति ज्ञानादिक जेह, तसू विषय बंध त्रिविध पिण ।। ३९. निरवद्य एह उदार, ज्ञान तण जे ज्ञेय करि । साथ संबंध विचार, तेह वाछवा थी वृत्ती ।। ४०. *सेवं भते ! सेवं भंत ! ए, तहत वचन तुम्हारा तंत ए। बीसम शतक विशेष ए, अर्थ आख्यो सप्तमुद्देश ए॥ ४१. च्यार सौ चौथी ढाल ए, आ तो आखी अधिक विशाल ए। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय ए, सुख 'जय-जश' हरष सवाय ए । विशतितमशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥२०॥७॥ ३५. 'सम्मट्ठिीए' इत्यादि, ननु 'सम्मद्दिट्ठी' त्यादौ कथं बन्धो दृष्टिज्ञानाज्ञानानामपौलिकत्वात् ?, अत्रोच्यते, (वृ०प० ७९१) ३६. नेह बंधशब्देन कर्मपुद्गलानां बंधो विवक्षित: किंतु सम्बन्धमात्र, (० ५० ५९१) ३७,३८. तच्च जीवस्य दृष्ट्या दिभिर्धम: सहास्त्येव, जीवप्रयोगबन्धादिव्यपदेश्यत्वं च तस्य जीववीर्यप्रभवस्वात् अत एवाभिनिबोधिकज्ञानविषयस्येत्याद्यपि (वृ० प० ७९१) ३९. निरवद्यं ज्ञानस्य ज्ञेयेन सह सम्बन्धविवक्षणादिति, (वृ० ५० ७९१) ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ । (श०२०।६१) ३४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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