Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 360
________________ ७. अभेद्य सूई प्रमुखज, तीखे शस्त्र करेह । नहीं भेदवा जोग्य ते, द्वितीय भेद छै एह ।। ८ अदाह्य न बलै अग्नि करी, अति सूक्ष्म भावेह । अग्राह्य हस्तादिक करी, ग्रहिवा जोग्य न जेह ।। ९. कतिविध खित्त परमाणु प्रभु ? जिन कहै चिउंविध रीत । अनई अर्द्ध रहित ते, सम संख्या करी रहीत ।। १०. अमध्य मध्य रहित ते, संख्या विषम कहाय । ते अवयव करि रहित छै, द्वितीय भेद ए पाय ।। ११. अप्रदेश तसु अंश नहीं, अवयव रहित तद्रूप । अविभागे करी नीपनों, अविभागज इक रूप ।। १२. तथा अर्थ अविभाग नं, विभाग करिवा जेह । समर्थ नहीं छै ते भणी, तसु अविभाग कहेह ।। १३. काल परमाणु नी पृच्छा । जिन कहै च्यार प्रकार। वर्ण गंध रस रहित छै, फर्श रहित वलि धार ।। ७. अभेज्जे 'अभेज्ज' त्ति भेधः--शूच्यादिना चर्मवत्तन्निषेधाद (व०प० ७८८) ८. अडज्झे, अगेज्झे। (श० २०।३८) 'अडझे' त्ति अदाह्योऽग्निना सूक्ष्मत्वात्, अत एवाग्राह्यो हस्तादिना, (वृ०प०७८८) खेत्तपरमाणू णं भते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा -अणद्धे, 'अणद्धे' त्ति समसंख्यावयवाभावात् (वृ० ५०७८८) अमज्झे, 'अमझे' त्ति विषमसंख्यावयवाभावात् (वृ० ५०७८८) ११. अपदेसे, अविभाइमे। श० (२०।३९) 'अपएसे' त्ति निरंशोऽवयवाभावात् (वृ. ५०७८८) १२. 'अविभाइमे' ति अविभागेन निर्वृ त्तोऽविभागिम एकरूप इत्यर्थः विभाजयितुमशक्यो वेत्यर्थः । १३. कालपरमाणू णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा–अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। (श० २०१४०) १४. भावपरमाणू णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते। (श० २०४१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श० २०१४२) १५. पञ्चमे पुदलपरिणाम उक्तः, षष्ठे तु पृथिव्यादि जीवपरिणामोऽभिधीयते (वृ० प० ७८८) १४. कतिविध भाव परमाणु प्रभु ? जिन कहै चउविध ताम । वर्ण गंध रस फर्शवंत, सेवं भंते ! स्वाम ।। १५. वीसम शतक तणों कह्यो, पंचमहेश तदर्थ । पंचम पुद्गल नैं कह्या, षष्टम जंतू अर्थ ।। विशंतितमशते पंचमोद्देशकार्थः ।।२०।५॥ पृथ्वीकाय का आहार आदि पद जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों ।। (ध्र पदं) १६. पृथ्वीकाइक हे प्रभु ! ए रत्नप्रभा पृथ्वी ख्यातो जी। सक्करप्रभा पृथ्वी वलि, ए बिहं बीच विख्यातो जी।। १७. समुद्घात करिने तिको, सुधर्म कल्प विषहो जी। ऊपजवा जोग्य जेह छै, पृथ्वीकायपणेहो जी ।। १८. ते प्रभु ! स्यूं पहिला ऊपजी, पाछै आहार करेहो जी। पहिला आहार करी तिको, पाछै ते ऊपजेहो जी? १६. पुढविक्काइए ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्कर प्पभाए य पुढवीए अंतरा १७. समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, १८. से णं भंते ! कि पुवि उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा? पुटिव आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? १९. गोयमा ! पुवि वा उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठद्दे से (श० १४६७,६८) २०. जाव से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पुटिव वा जाव उववज्जेज्जा, १९. जिन कहै पहिला ऊपजो, पाछै आहार करतो जी। इम जिम सतरम शतक नै, छठे उद्देशे वतंतो जी ।। २०. यावत तिण अर्थे करी, हे गोतम ! इम आख्यो जी। पूर्व ऊपजनै पछै, जाव ऊपज दाख्यो जी।। *लय : हो जी राय इसो मन चितवै ३४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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