Book Title: Avashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Author(s): Manvijay
Publisher: Devchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
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________________ आवश्यक निर्युक्तेरकचूर्णिः | स्थितिवेदसंज्ञाकषाया युर्ज्ञान द्वाराणि // 373 // नि० गा० 817-819 उकोसयद्वितीए पडिवते य णत्थि पडिवण्णो / अजहण्णमणुकोसे पडिवजंते य पडिवण्णे // 817 // | आयुर्वर्जसप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिजीवश्चतुर्णामपि न प्रतिपत्ता नापि प्रतिपन्नः, आयुषस्तूत्कृष्टस्थितौ द्वयोः पूर्व- प्रतिपन्नः, अजघन्योत्कृष्टस्थितौ चतुर्णामपि द्विधापि स्यात् / जघन्यायुःस्थितिर्न प्रतिपद्यते न प्रतिपन्नः क्षुल्लकभवगतः, शेषकर्मजघन्यस्थितिस्तु देशविरतिरहितस्य त्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नः स्याद् , दर्शनसप्तकातिक्रान्तः क्षपकोऽन्तकृत्केवली, जघन्य| स्थितिकर्मबन्धकत्वात् जघन्यस्थितित्वं तस्य, न तूपात्तकर्मप्रवाहापेक्षया // 817 // वेदसंज्ञाकषायानाहचउरोऽवि तिविहवेदे चउसुवि सणासु होइ पडिवत्ती। हेट्ठा जहा कसाएसु वणियं तह य इहयंपि // 818 // चत्वार्यपि त्रिविधवेदे द्विधापि सन्ति, अवेदस्तु देशविरतिरहितानां त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नः स्यात् , क्षीणवेदः क्षपको न प्रतिपद्यमानकः। संज्ञासु आहारभयमैथुनपरिग्रहरूपासु चतुर्णामपि स्यात्प्रतिपत्तिः, इतरस्त्वस्त्येव / अधो यथा 'पढमिल्लु| गाण उदए' इत्यादिना वर्णितं, समुदायार्थोऽयं-सकषायी चतुर्णा द्विधापि, अकषायी छद्मस्थवीतरागस्त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नो न तु प्रतिपद्यमानकः // 818 // आयुर्ज्ञानद्वार आह___ संखिजाऊ चउरो भयणा सम्मसुयऽसंखवासीणं / ओहेण विभागेण य नाणी पडिवजइ चउरो॥ 819 // सङ्ख्येयायुनरश्चत्वारि प्रतिपद्यते, प्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, भजना-विकल्पना सम्यक्त्वश्रुतयोरसङ्ख्येयवर्षायुषां, अयमर्थःविवक्षितकाले असङ्ख्येयायुषां सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, ओधेन-सामान्येन ज्ञानी प्रतिपद्यते चत्वार्यपि नयमतेन, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, विभागेन च मतिश्रुतज्ञानी युगपदाद्यसामायिकद्वयप्रतिपत्ता स्यात् , पूर्वप्रति // 373 // आ०चू० 32

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