Book Title: Avashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Author(s): Manvijay
Publisher: Devchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
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________________ BE आवश्यकनिर्युक्तेरव चूर्णिः // 425 // नमस्कारनियुक्ति नि० गा. 10141020 असहायस्य सहायत्वं कुर्वन्ति मम संयम कुर्वतः॥१०१०-१०१३ // साहण नमुकारो जीवं०॥१०१४॥ साहूण नमुकारो धन्नाण॥१०१५॥ साहुण नमुकारो एवं०॥१०१६॥ साहण नमुक्कारो सब्व. पंचमं होइ मंगलं // 1017 // गाथाचतुष्कं कण्ठ्यं // 1014-1017 // एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं // 1018 // उक्तं वस्तुद्वारं, आक्षेपमाह| नवि संखेवो व वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्धसाह्नणं / वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुज्जई तम्हा // 1019 // इह किल सूत्रं सङ्केपविस्तरद्वयमतीत्य न वर्तते, इदं नमस्कारसूत्रमुभयातीतं, यतोऽत्र न सङ्केपः, यद्ययं सङ्केपः स्यात ततो द्विविध एव नमस्कारः स्यात्सिद्धसाधुभ्यां, परिनिवृत्तार्हदादीनां सिद्धशब्देन ग्रहणात् संसारिणां च साधुशब्देन, विस्त. | रतोऽनेकविधः प्राप्नोति, ऋषभादिभ्योऽर्हद्भ्यः, सिद्धेभ्योऽप्यनन्तरसिद्धेभ्य इत्यादि // 1019 // प्रसिद्धिमाह अरहंताई नियमा साह साहू अ तेसु भइअव्वा / तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवह सिद्धो॥१०२०॥ ___ अहंदादयो नियमात्साधवस्तद्गुणानामपि तत्र भावात् , साधवस्तेष्वहंदादिषु भक्तव्याः, केचिदर्हन्तः केचिदाचार्या | कापदाचाया इत्यादि, तस्मात्पञ्चविध एव नमस्कारः, विस्तरेण कर्तुमशक्यत्वात् , तथा हेतुनिमित्वं भवति सिद्धः, तत्र हेतुर्य उत्को 'मग्गे अविप्पणासो' इत्यादि // 1020 // क्रममाह // 425 //

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