Book Title: Avashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Author(s): Manvijay
Publisher: Devchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
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________________ आवश्यकनियुक्तेरव श्रव चूर्णिः // 376 // सामायिकद्वयस्य त्रयस्य वा स्यात् // 824 // निर्वेष्टनमाह निर्वेष्टनादव्वेण य भावेण य निविडंतो चउण्हमण्णयरं / नरएसु अणुव्वहे दुगं चउकं सिया उ उब्वट्टे // 825 // ___ द्रव्यनिर्वेष्टनं-कर्मप्रदेशविसङ्घातरूपं, भावनिर्वेष्टनं-क्रोधादिहानिलक्षणं, तत्र सर्वमपि कर्म निर्वेष्टयंश्चतुष्टयं लभते, करणद्वारे विशेषतो ज्ञानावरणं निर्वेष्टयन् श्रुतमाप्नोति, मोहनीयं तु शेषत्रयम् / संवेष्टयंस्तु अनन्तानुबन्धा(न्ध्या )दीन प्रतिपद्यते, नि० गा. शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथाऽप्यस्ति / उद्वर्त्तनामाह-नरकेष्वनुद्वर्तयन् , तत्रस्थ एवेत्यर्थः, आद्यं सामायिकद्विकं प्रतिपद्यते, 825-828 तदाश्रित्य च पूर्वप्रतिपन्नः स्यात् , उद्धृत्तस्तु 'स्यात् कदाचित् चतुष्कं कदाचित्रिकं, पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति / / 825 // तिरिएसु अणुव्वढे तिगं चउक्कं सिया उ उव्वद्धे / मणुएसु अणुव्बट्टे चउरो ति दुगं तु उव्वद्दे // 826 // तिर्यक्षु गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु संज्ञिष्वनुद्वृत्तः सन् त्रिकमाद्यमधिकृत्य प्रतिपत्ता स्यात् प्राक्प्रतिपन्नश्च स्यात् , उद्धृत्तस्य | मनुष्यादिष्वायातस्य स्यात् चतुष्टयं स्यात् त्रिकं, द्विकमधिकृत्य द्विधा स्यात्, मनुष्येष्वनुद्वत्तः सन् चत्वारि प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नश्च, उद्धृत्तः सन् तिर्यग्नारकामरेष्वायातस्त्रीणि द्विकं वाधिकृत्योभयथा स्यात् // 826 // देवेसु अणुव्वहे दुर्ग चउकं सिया उ उबट्टे / उव्वद्दमाणओ पुण सव्वोऽवि न किंचि पडिवजे // 827 // उद्वर्त्तमानकः पुनरपान्तरालगतौ सर्वोऽपि देवादिने किश्चित्प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नस्तु द्वयोः स्यात् // 827 // ll // 376 // आश्रवकरणमाहणीसवमाणो जीवो पडिवजह सो चउण्हमण्णयरं / पुव्वपडिवण्णओ पुण सिय आसवओ व णीसवओ॥८२८॥

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