Book Title: Avashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Author(s): Manvijay
Publisher: Devchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
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________________ आवश्यकनियुक्तेरव भवआकर्षस्पर्शना चूर्णिः A द्वाराणि नि० गा. 856-859 // 384 // श्रुतसम्यक्त्वयोरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालो अहोरात्रसप्तकं, जघन्य एकः समयः, विरताविरतेश्चाहोरात्रद्वादशकं, जघन्यतस्त्रयः समयाः, विरतेरहोरात्रपञ्चदशकं, जघन्यतः समयत्रयं // 855 // भवद्वारमाहसम्मत्तदेसविरई पलियस्स असंखभागमेत्ताओ / अट्ठभवा उ चरित्ते अणंतकालं च सुयसमए // 856 // सम्यक्त्वदेशविरतिमतां क्षेत्र पल्योपमस्याऽसङ्ख्येयभागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त उत्कृष्टतः प्रतिपत्तिभवाः, जघन्यतस्त्वेकः, अष्टौ भवाश्चारित्रे, ततः सिद्ध्यति, जघन्य एक एव, अनन्तकालो अनन्तभवरूपः, तं प्रतिपत्ता स्यादुत्कृष्टतः सामान्यश्रुते, जघन्य एकभवमेव, मरुदेवीव // 856 // आकर्षद्वारमाहतिण्ह सहस्सपुहत्तं सयप्पुहत्तं च होइ विरईए। एगभवे आगरिसा एवतिया होंति नायब्वा // 857 // आकर्षः प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणं, तत्र त्रयाणां सहस्रपृथक्त्वं द्विप्रभृतिरा नवभ्यः, शतपृथक्त्वं च विरतेरेकभवे आकर्षाणामुत्कृष्टतः, जघन्यतस्त्वेक एव // 857 // तिण्ह सहस्समसंखा सहसपुहुत्तं च होइ विरईए / णाणभवे आगरिसा एवइया होति णायव्वा // 858 // त्रयाणां हि एकभवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्तं, भवाश्च पल्योपमाऽसङ्ख्येयभागसमयतुल्याः, ततः सहस्रपृथक्त्वं तैर्गु| णितं सहस्राण्यसङ्ख्ये यानि, तथा विरतेरेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणां, भवाश्चाष्टौ, ततः शतपृथक्त्वमष्टभिर्गुणितं सहस्र- पृथक्त्वं स्यात् // 858 // स्पर्शनामाह सम्मत्तचरणसहिया सवं लोगं फुसे गिरवसेसं / सत्त य चोहसभागे पंच य सुयदेसविरइए // 859 // // 384 //

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