Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 25
________________ मौलसिरी कषाय रसयुक्त, किंचित उष्ण, पाक तथा रस में कटु, गुरु, एवं कफ, पित, विष, श्वेतकुष्ठ, कृमि एवं दांतों के रोगों को दूर करने वाला है। 22 - भगवान नेमिनाथ शिबिकां देवकुख्यामारूहयामर वेष्ठितः। सहस्राम्रवणे षष्ठानशनः श्रावणे सिते ।। 169।। एवं तपस्यतस्य षट् पञ्चाशदिछनप्रये । छदमस्थसमये याते गिरैरैवतकामिघे ॥179|| षष्ठोपवासयुक्तस्यमहावेणोरधः स्थितेः। पूर्वेऽहन्यश्वयुजं मासिशुक्लपक्षादिमे ।।180॥ भगवान रैवतक (गिरनार) पर्वत पर तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बांस के वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये। बांस (वंशः) वंशस्त्वक्सारकरित्वचिसारतृणध्वजाः । शतपर्वा यवफलो वेणुमस्तकरतेजना ।।15 3|| भा.प्र.नि., पृ.-376 उपरोक्त श्लोक में बांस के संस्कृत नाम दिये हैं। लेटिन नाम Bambusa arundinacea willd Fam. Gramiceac है। बांस देश के सभी प्रांतों में उत्पन्न किया जाता है और छोटी-छोटी पहाड़ियों के आस-पास आप ही आप जंगली भी उत्पन्न होता है। वंशः सरोहिमः स्वादुः कषायो बस्तिशोधनः । छेदनः कफपित्तधनः कुष्ठास्रव्रणशोथजित् । भा.प्र.नि.,पृ.-376 बांस सारक, शीतवीर्य, स्वादिष्ट, कषायरस युक्त, वस्तिशोधक,छेदक, कफपित्त नाशक एवं कुष्ठ रक्तविकार, व्रण तथा शोथ इन सब को दूर करता है। 23 - भगवान पार्श्वनाथ विधायाष्टममाहारत्यागमश्ववने महा। शिलातले महासत्त्वः पल्यङ्कासनमास्थितः ।। 12811 नयन्स चतुरोमासान् छाद्मस्थ्येन विशुद्धिभाक्। दीक्षाग्रहवने देवदारुभूरिमहीरुहः ।।134|| उत्तर पुराण, पृ.-438 भगवान ने जिस वन में (अश्ववन) दीक्षा ली थी उसी वन में जाकर वे देवदारु नामक एक बड़े वृक्ष के नीचे विराजमान हुये। देवदारु वृक्ष देवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्र दारु च। मस्तदारु दकिलिमं किलिमं सुरभूरूहः ।।24|| भा.प्र.नि., पृ.-196 देवदारु, दारुभद्र, दारु, इन्द्रदारु, मस्तदारु, दकिलिम, किलित और सुरभरूह संस्कृत नाम हैं ।लेटिन नाम Cedrus deodara (Roxb.) Loud Fam pinaceac है। पश्चिमोत्तर हिमालय में कुमाऊँ से पूर्व की ओर यह पाया जाता है। जौनसार और गढ़वाल में 7 से 8.5 हजार फीट के बीच का भाग देवदारु वृक्षमाला का प्रधान उत्पत्ति स्थान है। इसका वृक्ष बहुत विशाल, चिरायु, सुन्दर, 160 से 180 फीट तक ऊंचा तथा कहीं कहीं इससे अधिक ऊंचा होता है। अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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