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कारण चोल राज्य का सूर्य कई शताब्दियों तक अस्त रहा और वह गौण राज्य के रूप में संभवत: चलता रहा। 9वीं शताब्दी ई. में चोल देश के तंचाऊर नगर में विजयालय चोल ने चोल राज्य का पुरुत्थान किया और अपने वंश की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारी आदित्य चोल, परान्तक चोल (907-943 ई.) राजा हुए उसके कतिपय उत्तराधिकारी महत्वपूर्ण नहीं थे, किन्तु राजा चोल (985-1016 ई.) इस वंश का महान नरेश था, यह सामान्यत: शैवधर्म का अनुयायी था, किन्तु वह उदार सहिष्णु नरेश था। उसके राज्य में जैनों के ऊपर कोई अत्याचार नहीं हुआ, जैनियों को शैवों के समान ही राज्याश्रय प्राप्त था और उसके राज्य में जैन धर्म उन्नत अवस्था में था।
1074 ई. में कोलुत्तुंग जैन धर्म का अनुयायी सम्राट हुआ। इसके आश्रय में अनेक जैन विद्वानों ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इस नरेश ने अपने राज्य से समस्त निषिद्ध पदार्थों का आयात बन्द कर दिया था। प्राचीन भारत में चरित्रवान नरेशों में उसकी गणना की जाती है।
चोल साम्राज्य में जैन संस्कृति उन्नत रूप में थी तथा हिन्दू धर्म के साथ निर्विरोध सदभावपूर्वक लोक कल्याण में रत थी। (पृ. 189)22.
गंगवंश-दक्षिण के सम्पूर्ण वंशों में यह सर्वाधिक स्थायी रहा और पल्लव, कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकूट आदि सभी प्रधान राजशक्तियों का प्रबल प्रतिद्वन्दी बना रहा। इस वंश का प्रथम राजा माधव कोंगुणिवर्म प्रथम (189-250 ई.) था। यह पराक्रमी व धर्मात्मा था। इसके एक भव्य जिनालय एवं विद्यापीठ बनवाया जो शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र रहा था। उसके उपरान्त किरियमाधव द्वितीय हुआ। वह नीतिशास्त्र में निष्णात था। वैशेषिक सूत्रों पर उसने टीका लिखी थी।
3री-4थी शताब्दी में गंग नरेशों के शासनकाल में कई प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। कसायपाहुड के आचार्य यतिवृषभ कृत चूर्णी सूत्रों पर वृत्ति लिखी, शामकुण्ड और बप्पदेव ने भी आगमों पर टीकाएं लिखी। कुचिभट्टारक और नन्दमुनि ने पुराण ग्रन्थ लिखे। शिवधर्म ने कम्मपयडि और सत्तक नामक कर्म ग्रंथों की रचना की। यशोभद्र, प्रभाचन्द्र श्रीदत्त आदि विद्वान भी इसी काल में हुए।
अविनीत कोंगुणि पराक्रमी और धर्मात्मा नरेश था उसके गुरु जैनाचार्य विजयकीर्ति थे। उसने अनेक अर्हतायतन को दान दिया था, देवनन्दी पूज्यपाद (464-524 ई.) में उसने अपने पुत्र युवराज दुर्विनीत का शिक्षक नियुक्त किया था। दुर्विनीत कोंगुणी गंगवंश का महान नरेश था। महाकवि भारवि भी कुछ समय तक उसके दरबार में रहे और उसने उनके करातार्जुनीय के 15वें सर्ग पर टीका भी लिखी। कन्नड़ भाषा के प्रारंभिक लेखकों और कवियों में भी दुर्विनीत की गणना है ।23 (पृ. 197)
दुर्विनीत के प्रधान धर्म एवं विद्यागुरु पूज्यपाद देवनंदि जैनधर्म के महान आचार्यों में से है। जैनेन्द्रव्याकरण, शब्दावतार, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की उन्होंने रचना की। सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, काव्य, आयुर्वेद, छंदशास्त्र आदि विभिन्न विषयों में वे निष्णात थे। तदुपरांत मुष्कर राजा हुआ इसने मुष्कर वसदि नामक जिनालय का निर्माण कराया था। भूविक्रम, विक्रमादित्य गोविन्द शचीन्द्र पृथ्वीकोंगुणि राजा भी जिनभक्त था। पृथ्वीकोंगुणि ने जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। यह युग शांति पूर्ण रहा, अनेक विद्वान जैनाचार्यों ने 6ठी 7वीं शताब्दी में जैनधर्म की प्रभावना की और महत्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया। गंग नरेशों से सम्मान-प्रश्रय पाने वाले इस काल के जैन गुरु व विद्वान निम्नलिखित हैं -
पूज्यपाद, गुणनन्दि, वक्रग्रीव पात्रकेसरी, वज्रनन्दि, सुमतिदेव, श्रीवर्धदेव, गंगाचार्य, ऋषिपुत्र, वृषभनन्दि, चन्द्रसेनाचार्य, जोइन्दु, महासेन, जटासिंहनन्दि, रविषेण, पद्मनन्दि, अपराजितसूरि, कुमारनन्दि, धनंजय कवि इत्यादि।
सन् 777 ई. में श्रीपुरुष ने राज्य का परित्याग करके पुत्र शिवमार द्वितीय को सिंहासन देकर अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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