Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 89
________________ है । 1. 2. 3. 4. स्वसार कृति का नाम लेखक : तत्वदेशना ( तत्वसार पर प्रवचनों का संग्रह ) : आचार्य मुनि विशुद्धसागर मुनि विश्ववीरसागर प्रथम, 2005 (20 " x 30 " ) /8, 32 + 154 : श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मन्दिर समिति, चिरगांव (झाँसी) समीक्षक 1: डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर सम्पूर्ण जैन वांगमय को विषयानुसार विभाजन के क्रम में चार अनुयोगों में विभाजित किया जाता वर्ष 19 अंक 3, जुलाई-सितम्बर 2007, 83-85 - पुस्तक समीक्षा Jain Education International सम्पादक संस्करण एवं वर्ष : आकार एवं पृष्ठ संख्या: प्रकाशक - प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग पूर्वाचार्यों ने अध्यात्म विषयक ग्रंथों की जटिलता एवं इन्हें सम्यक रूप से आत्मसात करने के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि के सृजन की दृष्टि से चारो अनुयोगों के स्वाध्याय का एक क्रम निर्धारित किया है जिसके अनुसार प्रथम तीन अनुयोगों का अपेक्षित ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त द्रव्यानुयोगों के ग्रंथों का स्वाध्याय करने पर ग्रंथ रचनाकार के मनोगत भाव एवं आशय को हम ठीक से हृदयंगम कर पाते हैं। जिस प्रकार पूर्ववर्ती कक्षाओं के विषय का ज्ञान न होने पर छात्र उत्तरवर्ती कक्षाओं का विषय नहीं समझ पाता है उसी प्रकार प्रथमानुयोग में वर्णित महापुरूषों के जीवन प्रसंगों, करणानुयोग में विवेचित लोक के स्वरूप, स्वर्ग-नरक की व्यवस्थाओं एवं कर्म सिद्धान्त की वैज्ञानिकता, सूक्ष्मता के बगैर मानव जीवन के विधि - निषेधों पर आस्था नहीं बनती । फलस्वरूप अध्यात्म के विवेचनों में भी हम तर्क के बजाय कुतर्क करने लगते हैं। पाप-पुण्य, निमित्त उपादान, निश्चय व्यवहार, हेय उपादेय के विषयों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझने पर ही पूर्वाचार्यों के मंतव्य को आत्मसात करना शक्य है। तीर्थंकर आदि 63 शलाकापुरुषों का जीवन पूर्व भव एवं कथा साहित्य | भूगोल, खगोल, गणित एवं कर्म सिद्धान्त । श्रावकों एवं मुनियों की जीवनचर्या, विधि निषेध | आत्मा, परमात्मा से सम्बद्ध साहित्य | - विक्रम की प्रथम शताब्दी के महान दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्द की कृतियाँ समयसार, प्रवचनसार, नियमसार एवं पंचास्तिकाय अध्यात्म के सिरमौर ग्रंथ हैं। इनमें आत्मा को परमात्मा बनाने का श्रेष्ठ ज्ञान अपने उत्कृष्ट रूप में निहित है किन्तु इस ज्ञान को और अधिक स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करने के लिए इन ग्रंथों पर टीकाओं तथा स्वतंत्र ग्रंथों का सृजन परिवर्ती आचार्यों द्वारा किया गया। आत्म कल्याण की उत्कृष्ट भावना से अनुप्राणित होकर तिल - तुष मात्र का परिग्रह छोड़ने वाले शान्त परिणामी जैनाचार्यों की सर्वाधिक अभिरूचि सदैव से अध्यात्म के ग्रंथों में रही है। दसवीं शताब्दी ईसवीं के आचार्य देवसेन (गणि) ने निम्नांकित 6 ग्रंथों का सृजन किया है। 1. 2. भावसंग्रह दर्शनसार लघुनयचक्र 4. अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 3. आलाप पद्धति 5. आराधनासार 6 तत्वसार For Private & Personal Use Only 83 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96