Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 94
________________ तत्व मीमांसा के अन्तर्गत काल द्रव्य की विवेचना करते हुए आप लिखती हैं कि 'जैन परम्परा में काल के सन्दर्भ में 2 अवधारणायें मिलती है (पू. 136 पर ) L काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। वह जीव एवं अजीव की पर्याय मात्र है ! काल स्वतंत्र द्रव्य है। अर्द्धसमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है। आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर करते हैं। उनका मानना है कि 'काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। वे दोनों कथन सापेक्ष हैं. विरोधी नहीं । निश्चयदृष्टि में काल जीव- अजीब की पर्याय है और व्यवहारिक दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है । इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है।' अध्याय-6 में आपने अको समझाते हुये लिखा है (पृ. 277 पर) कि 'अनार या अनेकांत अहिंसा का वैचारिक आधार है। इसी प्रकार अहिंसा का सामाजिक आधार अनासक्ति या अपरिग्रह है। व्यक्तिगत जीवन में जिसे अनासक्ति कहते हैं, सामाजिक जीवन में वही अपरिग्रह हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन में आसक्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है परिग्रह भाव और भोग भावना, जिनके वशीभूत होकर व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति तीन रूपों में बाह्य-स्तर पर अभिव्यक्त होती है अपहरण या शोषण ! 1. 2. आवश्यकता से अधिक परिग्रह। 3. भोग । केवल हत्या या रक्तपात ही हिंसा नहीं है, परिवह भी हिंसा ही है क्योंकि हिंसा के बिना परिग्रह असंभव है। संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन होता है और इस रूप में परिग्रह हिंसा है। अपरिग्रह बाह्य अनासक्ति है, अनासक्ति आन्तरिक अपरिग्रह है ।' इसी प्रकार अन्य अध्यायों में आपने प्रामाणिक, ससन्दर्भ, समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दार्शनिक सिद्धान्तों का सरल शब्दों में विशद विवेचन प्रस्तुत किया है। लेखिका का श्रम एवं गहन गम्भीर अध्ययन यत्र तत्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। कृति जैन दर्शन की किसी भी विधा पर कार्य करने वालों के लिये पठनीय एवं संकलनीय है। मुद्रण निर्दोष एवं मूल्य उचित है। 88 अन्तःकरण शुद्धि के पुनीत पर्व दशलक्षण के अवसर पर गत वर्ष में हुए समस्त ज्ञात / अज्ञात अपराधों / भूलों हेतु हम सादर क्षमाप्रार्थी है। देवकुमारसिंह कासलीवाल Jain Education International प्रकाशक डॉ. अनुपम जैन सम्पादक एवं सम्पादक मण्डल के सभी सदस्य क्षमावाणी 27.09.07 . For Private & Personal Use Only अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 www.jainelibrary.org

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