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प्रयुक्त की जाने वाली भाषा को छोड़कर समय की प्रचलित भाषा को अपनाना महत्व से खाली नहीं है। यह कथन विषय की विवेचना में जनभाषा के महत्व को दर्शाता है।
गाथा क्रमांक 4 पर दिये गये चतुर्थ प्रवचन (पृ. 10-12) में आपने पंच परमेष्ठी की आराधना, मंत्रों के विभिन्न प्रकार आदि के बारे में द्रव्य संग्रह श्रावकाचार आदि के माध्यम से सरल, सुबोध शैली में विवेचन किया है।
गाथा क्रमांक 5 की विवेचना में उदाहरण के माध्यम से विषय को स्पष्ट करने की शैली देखिये।
जब तक भोगाभिलाषा अंतरंग में विद्यमान है, तब तक योग-धारण संभव नहीं है। यदि किसी ने द्रव्य भेष को स्वीकार भी कर लिया, तो वह सफल नहीं हो सकेगा।
आचार्य योगेन्द्र देव ने परमात्म प्रकाशजी ग्रंथ में लिखा है जिसके हृदय में मृगलोचनी स्त्री निवास कर रही है, वहाँ ब्रम्ह-निवास कहाँ ? कारण एक म्यान में दो तारें नहीं रखी जाती, एक ही समय में दो मौसम नहीं होते। उसी प्रकार एक ही साथ आत्मानुभव एवं गरभव नहीं होता,एक समय में एक ही उपयोग हुआ करता है।
कर्मबन्ध की चर्चा तो बहुत होती है किन्तु अशुभ कर्मों के उदय में आतही परान स्वाध्यायी भी विचलित हो जाते हैं ऐसे ज्ञानी बन्धुओं को मोक्ष का पथ दिखाते हुए गाथा 51 के प्रवक्ता मुनिश्री सचेत करते हुए कहते है। भो चेतन! तू क्यों बिलख रहा है जो कर्म का बन्ध तुमने पूर्व में किया था वह आज उदय में आकर खिर गया, प्रसन्न हो जाओ कि आज मैं हल्का हो गया। (4.1:1-1122
भो ज्ञानी ! कर्म के फल को भोगते समय न राग करो, न द्वेष करो। जो कर्म के विपाक में राग-द्वेष नहीं करता, वह पूर्व-संचित कर्म का विनाश कर देता है एवं नये कमें का बन्ध नहीं करता: यदि राग द्वेष करते रहोगे तो कभी मोक्ष नहीं होगा, क्योकि पूर्व में कर्म नष्ट तो हुए परन्तु नवीन कर्म का बध हो गया जा मुमुक्षु जीव होता है वह पूर्व को तो नाश करता है और वर्तमान में किबाड़ बन्द कर लेता है, इसी का नाम सवर है। संवर सहित निर्जरा मोक्ष -मार्ग में प्रयोजन भूत है और संदर से रहित निर्जरा मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं है। संवर एवं निर्जरा की प्राप्ति बिना तपस्या के संभव नहीं है। आचार्य भगवन् उमास्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है- 'तपस्या निर्जरा च', तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है। इसलिए हे मनीषियों ! संवर की ओर बढ़ों, निर्जरा की ओर बढ़ो, आस्रव को छोड़ा। आस्रव हेय तत्व है, संवर -निर्जरा उपादेय तत्व है।
भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार है। गाथा 54-56 पर प्रवचन करते हुए किया गया प्रयोग देखिये।
भोगी और योगी में इतना ही अंतर होता है। भोगी पर को दोष देता है और योगी कर्म विचित्रता कहके स्व में प्रवेश कर जाता है। भोगी जलता ही जलता जाता है और योगी जलते हुए भी जल बन जाता है। (पृ. 118)
भक्ति के महत्व को आपने गाथा क्र.73 की विवेचना में अत्यन्त सुन्दर रूप में व्यक्त किया है।
ध्यान रखना जीवन में, भगवान में चमत्कार नहीं होता,प्रतिमाओं में चमत्कार नहीं होता बल्कि जितनी निर्मल एवं विशुद्ध भावों से भक्ति की जाती है, आपकी वह भक्ति मनीषियों ! चमत्कार बन जाती है। (पृ. 148)
संक्षिप्तत: इस महान कृति पर किये गये मर्मस्पर्शी प्रवचनों का संकलन जैन साहित्य की अमूल्य निधि है। जटिल विषय को प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए सरल, सहज,सुबोध रूप में प्रस्तुत कर मुनिश्री ने स्वाध्याय रसिकों पर महान उपकार किया है। कृति पठनीय एवं संकलनीय है। अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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