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अर्हत्व
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
जीवन की आपाधापी से त्रस्त इंसान ईश्वर और अध्यात्म की शरण में जाकर मन की शांति, सुकून और संतुष्टि खोजना चाहता है। धर्म और अध्यात्म में यही अनुप्राणित होता है। धर्म जोड़ता है। जीने की कला सिखलाता है। साधना का मार्ग है धर्म धर्म के मर्म को जाने-समझे बिना सब कुछ बेमानी है।
सौ बात की एक बात ! जैन अगर जैन ही रहें तो इसमें क्या ? बात पते की है ।
ऐसे हिन्दू शब्द व हिन्दुत्व की व्याख्या पहले से ही ठीक हुई होती तो किसी तरह के 'वाद' उपस्थित नहीं होते। स्पष्ट अनुत्तरणीय एवं निर्विवाद व्याख्या विशेष सावधानी की चीज है।
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टिप्पणी 1
जैन तो जैन ही रहेंगे
■ कोकल चन्द जैन
एतद् अपेक्षित एवं विवेचित व्याख्या वेदों के अनुयाइयों, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी वगैरह सभी के संबंध में समान रूप से लागू होती है। अतः यदि सर्व समाज और सरकार ईमानदारी के साथ तदनुरूप कार्यव्यवहार और आचरण करें तो फिर कहना ही क्या ? इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि ऐतिहासिकता के साथ-साथ धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से सुस्पष्ट, सर्वग्राह्य, तथ्यात्मक व्याख्या में है।
उक्त परिप्रेक्ष्य में 'जैन हिन्दू' ही है लेकिन किस अर्थ में ? शीर्षान्तर्गत ज्ञानोदय 1950 ई. से उद्धृत जाने-माने क्रांतिकारी व चिंतक विनायक दामोदर सावरकर का आलेख विगत दिनों कतिपय पत्रिकाओं में देखने में आया जिसमें प्रबुद्ध लेखक द्वारा किंचित अपेक्षा विशेष से यह बात प्रतिभासित करते हुए टिप्पण करने का उपक्रम किया गया है।
जो भी हो, शाब्दिक परिभाषाओं, व्याख्याओं, मान्यताओं, अपेक्षाओं, नजरिए, टिप्पणी वगैरह के प्रतिपादन में इतर मन्तव्यों अथवा निष्कर्षो इत्यादि का प्रभावित होना स्वाभाविक बात हो जाती है।
प्राचीन काल से ही हिन्दुत्व की सुस्पष्ट व्याख्या प्रतिपादित नहीं हो पाई। इसमें हिन्दू धर्म का अर्थ हिन्दुत्व ही मान लिया जाना तथा वैदिकों द्वारा हिन्दू शब्द को आत्मसात कर लिया जाना बड़े कारक रहे
हिन्दू शब्द मूलतः देशवाचक है। इस प्रकार के हिन्दू शब्द का अर्थ धर्मनिष्ठ न होकर देशनिष्ठ अथवा राष्ट्रनिष्ठ होता है। यह कि शब्दावली के गूढार्थ अथवा व्याख्या के जरिए सुदीर्घ अर्से से प्रचलित एवं बहुप्रचारित मान्यताओं व अवधारणा को अनायास ही बदल दिया जाना कोई सहज संभाव्य काम नहीं । धर्म-परिवर्तन के सवाल को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गुजरात विधानसभा से प्रस्ताव पास करा लिया जाना यह संशोधन संविधान पर प्रहार और समाज को साम्प्रदायिक रेखा में विभाजित करने का प्रयास है। जैन और बौद्धों को हिन्दुओं की एक शाखा बताना दो स्वतंत्र धर्मों के अस्तित्व को चुनौती देने जैसा है। यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 25 के अन्तर्गत धर्म के स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार के विरूद्ध कार्य है।
यह संशोधन सारहीन और औचित्य से परे है। जैन समाज में भारी आक्रोश है। इस सम्बन्ध में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभा, दिगम्बर जैन अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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