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विष्णु से प्रारम्भ होने वाली पल्लव वंश की इस दूसरी शाखा का अन्त हुआ। पल्लव (550-600 ई.) में तीसरी शाखा का प्रारंभ हुआ। इसके आश्रय में महाकवि भारवि ने जीवन के अन्तिम वर्ष बिताये थे ।
इसका उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (600-630 ई.) हुआ वह जैन धर्म भक्त था। कई जैन मन्दिर और सित्तनवासल की गुफाएं भी उसने बनवाई थी। इन गुफाओं में भित्तिचित्र भी मिलते हैं। चैत्यालयों के निर्माण के कारण इसे चैत्यकन्दर्प उपाधि प्राप्त हुई थी। महेन्द्रवर्मन का उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन प्रथम (630-680 ई.) प्रतापी नरेश था। यह शैवधर्म का समर्थक था किन्तु इसके राज्य में जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मो के साधु, देवालय, मठ और अनुयायी पर्याप्त संख्या में थे। तदन्तर नरसिंह वर्मन द्वितीय (690-715 ई.) शैवधर्म का समर्थक हुआ। सन् 705 ई. में नन्दिवर्मन हुआ इसे चालुक्यों, राष्ट्रकूटों गंगों से अनेक युद्ध किये। इसके पुत्र दन्तिवर्मन ने ( 795 845 ई.) तक राज्य किया, उसका उत्तराधिकारी नन्दिवर्मन तृतीय (844-866 ई.) हुआ। इसका पुत्र नृपतुंगवर्मन नरेश हुआ यह जैनधर्म का समर्थक था। इस वंश का अन्तिम नरेश अपराजित था। 10वीं शताब्दी में चोल सम्राटों के अभ्युत्थान ने पल्लव राज्य का अंत किया। पल्लवों की एक शाखा नोलम्बवाड़ी के नोलम्ब थे, इस वंश में जैनधर्म की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही।
पल्लव वंश के प्राय: सभी नरेश विद्याओं और कलाओं के पोषक थे और विद्वानों का आदर करते थे। प्राकृत, संस्कृत तमिल भाषाओं में श्रेष्ठ धार्मिक एवं लौकिक साहित्य का पल्लव नरेशों के आश्रय में सृजन हुआ 7वीं शती ई. के पूर्व पल्लव राज्य में जैन और बौद्ध धर्मों की ही प्रधानता थी, तदुपरान्त शैव और वैष्णव धर्मों का प्रसार हुआ। जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव चारों ही धर्म इस राज्य में साथ-साथ फलते फूलते रहे 7वीं 8वीं शताब्दी में शैव और वैष्णवों ने जैनों और बौद्धों पर भीषण अत्याचार करने आरंभ कर दिये किन्तु दक्षिण के विद्वान जैन गुरुओं उनके संघों के संगठन, अनेक पड़ोसी राजाओं तथा सामन्त सरदारों की जैन धर्म में आस्था आदि कारणों से जैन धर्म पल्लव राज्य में अंत तक बना रहा। 20 पाण्डय राज्य - ईस्वी सन् के बहुत पहले से इस वंश की अवस्थिति थी। ई. सन् के प्रारम्भ के लगभग पाण्डय राज्य उन्नत अवस्था में था रोम के सम्राटों से इस वंश के राजनैतिक सम्बन्ध थे ई.पू. 25 में पाण्डय नरेश ने एक जैन मुनि को रोम के सम्राट आगस्ट्स के दरबार में भेजा था। उक्त मुनि ने अपना अंत निकट जानकर रोम में सल्लेखना द्वारा देह त्याग किया, और वहां उनकी समाधि बनी थी। आचार्य कुन्दकुन्द बलाकपिच्छ, समन्तभद्र आदि ने द्रविड़ देश में जैनधर्म का पोषण किया। पाण्डय राज्य की राजधानी मथुरा में सर्वप्रथम तमिल भाषा के साहित्य का प्रणयन हुआ। तिरुकुरल, तोलकप्पियम, नलादियर आदि का प्रणेता जैनों को माना जाता है। 5वीं शती में आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद ने द्रविड़ देश में विहार किया। 5वीं से 7वीं शती तक पाण्डय देश में जैनधर्म का अत्युत्कर्ष हुआ। वज्रनन्दि और उनके सहयोगी गुणनन्दि, वक्रगीव, पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीवर्धदेव आदि जैनाचार्यों ने द्रविड़ या द्रमिल संघ को एक सजीव शक्ति बना दिया। इन विद्वानों ने अनेक ग्रंथों का संस्कृत, प्राकृत, तमिल भाषाओं में प्रणयन किया। 6ठी शती के अंत में कडुंग राजा पाण्डय राज्य की शक्ति का पुनरुत्थान किया। वह पूर्वजों की भांति जैन भक्त था । उसके क्रमश: 4 वंशज भी जैनी थे। 10वीं शती के प्रारंभ में चोलो ने पाण्डय राज्य पर विजय करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। 12वीं शती में पाण्ड्यों ने फिर से शक्ति पकड़ी और दूसरा पाण्डय साम्राज्य उदय में आया। नरेश मारवर्मन कुलशेखर (1268-1311 ई.) हुआ उसके वृतान्त से विदित होता है कि उस समय पाण्डय देश में अनेक जैन मठ और जैनी विद्यमान थे। 1310 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण ने मदुरा के पाण्डय राज्य का अंत कर दिया। 21 चोल राज्य ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में उरगपुर का चोलराज्य एक उन्नत राज्य था। नागों से उसका सम्बन्ध था और जैन धर्म की उस राज्य में प्रवृति थी तीसरी शती ई. से पल्लवों के उत्थान के
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अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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