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लोग अपने आपको सोमकुल के यदुवंशी क्षत्रिय बताते थे होयसलो के पूर्वज अन्तिम राष्ट्रकूटों एवं उत्तरवर्ती चालुक्यों के साधारण श्रेणी के सामन्त मात्र थे ।
प्रतापी होयसल नरेश जैन धर्म के पालन एवं संरक्षण में प्रसिद्ध रहे हैं। विनयादित्य द्वितीय (1060-1101 ई.) इस वंश का ऐतिहासिक प्रसिद्ध नरेश था, यह जैन धर्मावलम्बी शासक था। होयसल वंश प्रतापी नरेश यशस्वी विष्णुवर्धन (11111141 ई.) राज्यकाल के आरम्भिक वर्षों में जैन धर्मावलम्बी था । उससे पूर्व सभी होयसल नरेश जैन धर्मानुयायी थे। 15
11वीं शती ई. के प्रारंभ में इस वंश का मुखिया सल नामक एक वीर नवयुवक था 925 ई. के लगभग अंगरदि में कुन्दकुन्दान्वय द्रविड संघ पुस्तकगच्छ के मौनी भट्टारक के शिष्य विमलचन्द पंडित देव ने सन्यासमरण किया था इस उपलक्ष्य में गंग नरेश इरिबबेडेंग ने वहाँ आकर गुरु का स्मारक स्थापित किया था। संभवत: इन्हीं विमलचन्द की निकट शिष्य परम्परा में मुनीन्द्र सुदत्त वर्धमान अंगदि जैन केन्द्र के अध्यक्ष हुए। नगर के बाहर 9वीं 10वीं शताब्दी की कई सुन्दर जिन बसदियाँ थी। इसी स्थान पर जैनाचार्य सुगत वर्धमान का विद्यापीठ था जिसमें अनेक गृहस्थ त्यागी, मुनि शिक्षा प्राप्त करते थे। 16
पोयसल (होयसल) (1007-1022 ई.) ने गुरु सुगत के उपदेश और पथ-प्रदर्शन में अपनी राज्यशक्ति की नींव डालनी प्रारंभ की। इस काल में चोलो द्वारा गंगवाडि राज्य का अंत कर दिये जाने से कर्नाटक देश की स्थिति संकट में थी अतः पोयसल अपनी वीरता एवं योग्यता से चालुक्यों का एक महत्वपूर्ण सामन्त हो गया और चोलों तथा उनके कोगाल्यवंशी सामन्तों ने युद्धों द्वारा प्रदेश छीनकर वह अपनी शक्ति बढ़ाने लगा। उसके पुत्र विनयादित्य प्रथम ( 10221047 ई.) और पौत्र नृपकाम होयसल (1047-1060 ई.) ने पोयसल के कार्य को चालू रखा और अपनी शक्ति बढ़ाते रहे गुरु सुगत वर्धमान ही उनके धर्मगुरु एवं राजगुरु थे।
नृपकाम के उत्तराधिकारी विनयादित्य द्वितीय (1060-1101 ई.) के गुरु शांतिदेव थे। 1062 ई. में अंगदि में ही शांतिदेव ने समाधिमरण किया और उस उपलक्ष्य में राजा तथा नागरिकों ने वहाँ स्मारक स्थापित किया था। इस राजगुरु के उपदेश से महाराज विनयादित्य ने अनेक जिनमन्दिर, देवालय, सरोवर, ग्राम और नगर निर्माण किये। 1062 में जैनगुरु अभयचन्द को भूमिदान देकर सम्मान किया।" 1069 में मंत्रावर नगर में जिन मन्दिर बनवाया 1094 ई. में इस नरेश ने दार्शनिक वादी जैन विद्वान गोपनन्दि का सम्मान किया और बेलगोल तीर्थ की बसदियों की मरम्मत के लिये कई गाँव दान दिये।
विनयादित्य द्वितीय का उत्तराधिकारी पुत्र बल्लाल प्रथम (1101-1106 ई.) राजा हुआ । इसके राजगुरु चारुकीर्ति पण्डितदेव थे ये महानवादी श्रुतकीर्तिदेव के शिष्य थे और स्वयं आयुर्वेद, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त, योग, मंत्र शास्त्र आदि विविध विद्या पारंगत थे। इसका उत्तराधिकारी उसका अनुज विट्टिदेव (विष्णुवर्धन) (1106-1141 ई.) था यह इस वंश का यशस्वी नरेश था। चालुक्यों की अधीनता से अपने आपको प्रायः मुक्त कर लिया और चोलो को देश से निकाल भगाया। स्वतंत्र होयसल राज्य का वह वास्तविक संस्थापक था साथ ही अत्यन्त सहिष्णु और समदर्शी था। 1121 में हादिरबागिलु जैन वसदि को दान दिया। 1125 ई. में जैनगुरु श्रीपाल त्रैविद्यवृती का सम्मान किया । श्रवणबेलगोला में उसने एक जिनालय बनवाया, 1121 में वहीं समाधिमरण किया था।
इसके अलावा मंत्री पुणिसमय्य, पत्नि जकणब्बे दण्डनायक बलदेवण्ण, परस्पराय, हरिदेव, माचिराज, मरियाने, भरतेश्वर, चिन्नराज, इम्मद्रि, बिट्टिमय्य आदि भी जिनभक्त एवं जैनधर्म को समर्पित थे। इन्होंने चार प्रकार के दान दिये एवं कई मन्दिरों का निर्माण कराया। इनके सहयोग से विष्णुवर्धन ने शासन व्यवस्था सुचारू की और जैनधर्म का भी सर्वतोमुखी उत्कर्ष किया।
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अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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