Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ और उनके समय में जैनधर्म फला-फूला। यद्यपि अधिकतर चालुक्य नरेश शिव एवं विष्णु भक्त था, किन्तु धर्म सहिष्णु होने के कारण उन्होंने उदारतापूर्वक जैन मंन्दिरों का निर्माण व उनकी व्यवस्था के लिये योगदान दिया तथा सम्प्रदाय निरपेक्षता के आधार पर जैनधर्म को संरक्षण दिया । 1040 ई. के लगभग जयकीर्ति छंदोनुशासन (संस्कृत) के रचनाकार थे। 11वीं शताब्दी में ही श्रीधर एक प्रसिद्ध गणितज्ञ हुए हैं उन्होंने 1049 ई. में 'जातक तिलक' ज्योतिष विषयक ग्रंथ लिखा, जो नक्षत्र विद्या पर महत्वपूर्ण शोध प्रबन्ध है । ये श्रीधर ज्योतिर्ज्ञान विधि एवं त्रिंशतिका के रचयिता श्रीधर से भिन्न है। उनकी चन्द्रप्रभुचरित्र कृति अनुपलब्ध है। उनके आश्रयदाता नरेश अहवमल्ल अथवा सोमेश्वर प्रथम थे (1043-680 ई.) नरेश कीर्तिवर्मा ने 'गौ वैद्य' नामक पशु रोग चिकित्सा सम्बन्धी ग्रंथ लिखा । इससे ज्ञात होता है कि उस समय राजकुमारों को सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। उसने जैनधर्म के पुनरुत्थान के लिये बहुत कार्य किया । 13 पूर्वी चालुक्य - सन् 615 ई. में चालुक्य सम्राट, पुलकेशी द्वितीय ने आन्ध्रप्रदेश की विजय करके अपने अनुज कुब्जविष्णुवर्धन को उसका शासक नियुक्त किया था । वेंगि इस देश की राजधानी थी। कुब्जविष्णुवर्धन से प्रारम्भ होने वाले इस वंश में लगभग 27 राजा हुए और उन्होंने लगभग 500 वर्ष तक राज्य किया । कुब्जविष्णुवर्धन कुशल चतुर शासक था, उसने अपने वंश की नीव सुदृढ़ की थी । चालुक्यों की इस पूर्वी शाखा में भी मूलवंश की भांति जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। इसके बाद जयसिंह प्रथम, विष्णुवर्धन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय, विष्णुवर्धन तृतीय क्रमशः राजा हुए। अन्तिम नरेश ने जैनाचार्य कलिभद्र का सम्मान किया था। उसके पुत्र विजयादित्य प्रथम की महारानी अय्यन महादेवी ने 762 ई. में दानपत्र की पुनरावृत्ति की थी। इसके बाद विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई.) वेंगि राज्य का स्वामी हुआ। यह जैनधर्म का भक्त था। इसके काल में विजगापट्टम (विशाखापट्नम) जिले की रामतीर्थ पहाड़ियों पर एक जैन सांस्कृतिक केन्द्र था । यह पर्वत अनेक जैन गुहा मन्दिरों, जिनालयों एवं अन्य धार्मिक कृतियों से सुशोभित था । अनेक विद्वान जैन मुनि यहाँ निवास करते थे। विविध विधाओं एवं विषयों की उच्च शिक्षा के लिये यह संस्थान महान विद्यापीठ था । इस काल में जैनाचार्य श्री नंदि इस विद्यापीठ के प्रधानाचार्य थे जो आयुर्वेद आदि विभिन्न विषयों में निष्णात थे। स्वयं विष्णुवर्धन उनकी पूजा करते थे। इन आचार्य के शिष्य उग्रादित्याचार्य थे जो आयुर्वेद एवं चिकित्सा शास्त्र के विद्वान थे। सन् 799 ई. के कुछ ही पूर्व उन्होंने अपने प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ कल्याणकारक की रचना की थी। तदुपरांत विजयादित्य द्वितीय (799-847 ई.) कलिविष्णुवर्धन पंचम, विजयादित्य ( 848892 ई.) हुए चालुक्य भीम प्रथम (892-922 ई.) हुए। अम्म प्रथम (922-929 ई.) भीम द्वितीय, अम्म द्वितीय क्रमशः राजा हुए अम्म द्वितीय प्रतापी और धर्मात्मा नरेश था सन् 945-970 ई. तक इसने राज्य किया। यह अपने पूर्वजों की भांति जैनधर्म का पोषक और संरक्षक था। इसके शासन काल में (10वीं शती) जैन धर्म आन्ध्र प्रदेश में अत्यधिक लोकप्रिय व उन्नत था। एक लेखानुसार इसने पट्टवर्धक घराने की राजमहिला माचकाम्बे के निवेदन पर अर्हनन्दी को 'सर्वलोकाश्रय जिनभवन' के लिये दान दिया था । अम्म का प्रधान सेनापति दुर्गराज था जिसकी चालुक्य लक्ष्मी की सुरक्षा के लिये तलवार हमेशा म्यान से बाहर रहती थी। वह पूर्वी चालुक्य राज्य का शक्ति स्तम्भ कहा जाता था। यह वंश जैनधर्म का अनुयायी था । 14 कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य - 10वीं शती के अन्तिम वर्ष भारतीय इतिहास में घटना पूर्ण थी। अनेक राज्यों में उलटफेर हुई, कई नरेशों की मृत्यु हुई, नयों के राज्याभिषेक हुए कई स्थानों में राज्य एवं वंश परिवर्तन हुए। वस्तुत: जैन परम्परा के अनुसार यह युग दूसरे उपकल्कि के अंत का सूचक था। दक्षिण भारत में इस काल में महान राजक्रांति हुई। 967 ई. में राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय नर्मद के दक्षिणवर्ती 52 अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96