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ने 585 ई. में मेघुटी में जैन मन्दिर बनवाया एवं विशाल जैन विद्यापीठ की स्थापना की। यह जिनभक्त था। 597 ई. में उसकी मृत्यु के बाद भाई मंगलीश ने 597 ई. से 608 ई. तक राज्य किया। वह विष्ण भक्त था। उसके पश्चात् कीर्तिवर्मन के पुत्र पुलकेशिन द्वितीय ने मंगलीश को समाप्त कर सिंहासन पर अधिकार किया। वह जैनधर्म का महान संरक्षक सम्राट रहा। इसके गुरु आचार्य विकीर्ति (रविभद्र) थे। इसके शौर्य एवं सैनिक शक्ति के कारण सम्राट हर्षवर्द्धन दक्षिण में नहीं बढ़ पाया था। आन्ध्र प्रदेश में पिष्टपुर को विजित कर उसने 615 ई. में अपने छोटे भाई कृष्ण विष्णुवर्द्धन को उसका शासक नियुक्त किया जिसके कारण वेंगि की 5वीं चालुक्य शाखा आरम्भ हुई।
पुलकेशी ने पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन को परास्त कर काचीवरम का अधिकार कर लिया था कावेरी को पार कर चोलों, केरलों एवं पाण्ड्य नरेशों को अपना मित्र बना लिया था।
इसी के काल में जैनाचार्य अकलंकदेव हुए, जिन्होंने बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया जिसके कारण उन्हें 'भट्ट' उपाधि से विभूषित किया गया। अकलंकदेव तत्वार्थ राजवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीस्त्रय, प्रमाणसंग्रह आदि अनेक प्रसिद्ध न्याय के ग्रंथों के रचयिता थे। पुलकेशी का पुत्र उन्हें 'पूज्यपाद' कहता था। पुलकेशी के राज्य में बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म अधिक अच्छी स्थिति में था। (641-642 ई.) में पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन द्वारा आक्रमण कर देने से उसमें उसकी मृत्यु हो गई। उत्तराधिकारी विक्रमादित्य के राज्य में राज्य की स्थिति ठीक नहीं थी। पल्लवों द्वारा युद्ध तथा लूटमार के कारण अराजकता फैल गई थी। लेकिन अपने साहस एवं कौशल से पाण्ड्य नरेश माखर्मन तथा गंग की सहायता से नरसिंहवर्मन को परास्त कर अपना राज्य वापिस लिया। आचार्य अकलंकदेव इसके गुरु थे। (680 ई.) में इसकी मृत्यु के पश्चात पुत्र विनयादित्य (680-696 ई.) सिंहासनरूढ़ हुआ। उसके बाद उसका पुत्र विजयादित्य (697-733 ई.) शासक हुआ। इन नरेशों ने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। पुष्पसेन, विमलचन्द्र, कुमारनन्दि, अनन्तवीर आदि आचार्य उसी काल में हुए। उसकी मृत्यु पर उसका पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय (733-744 ई.) में सिंहासन पर बैठा। जैनधर्म भक्त इस नरेश में शंख जिनालय व धवल जिनालय आदि मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा जिन पूजन के लिये भूमि दान दी। उसका पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय (744-757 ई.) इस वंश का अन्तिम नरेश हुआ। यह भी जैन भक्त था। राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने 753 ई. में कीर्तिवर्मन को पराजित कर वातापी के पश्चिमी चालुक्य राज्य का अंत कर दिया।
कीर्तिवर्मन नि:संतान था, कीर्तिवर्मन तृतीय, तैल प्रथम, विक्रमादित्य तृतीय, अय्यन प्रथम, विक्रमादित्य चतुर्थ राष्ट्रकूटों के अधीन गौण सामन्तों या उपराजाओं की भांति चलते रहे । अन्तिम के पुत्र तैल द्वितीय ने 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राष्ट्रकूटों का अंत करके चालुक्य शक्ति का पुनरुद्धार किया
और कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यवंश की स्थापना की। वातापि के चालुक्य जैनधर्म के आस्थावान होते हुए भी शैव-वैष्णवादि धर्मों के प्रति उदार-सहिष्णु थे। बौद्धधर्म इस काल में पतनोन्मुख था।12 वेंगि के पूर्वी चालुक्य - तैलप द्वितीय की वंश परम्परा में उत्पन्न नरेश जयसिंह प्रथम (1015-1040 ई.) जिनधर्म सेवी रहा। इसी काल में आचार्य वादिराज, दयापाल, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव हुए। जयसिंह ने आचार्य वादिराज को 'जगदेकमल्ल' उपाधि प्रदान की थी। वलिपुर नामक स्थान में जयसिंह ने भगवान शांतिनाथ की प्रतिष्ठा करायी थी। इसके बाद आवाहमल्ल सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई.) ने त्रिभुवन तिलक आदि जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। उसका भाई विक्रमादित्य षष्टम भी जिन भक्त था। जिसने गंग पेमेनिडि चैत्यालय का निर्माण कराया था। उसने श्रवणबेलबगोला के समीप अनेक जिनालयों का निर्माण कराया था। जिन्हें बाद में राजाधिराज चोल ने नष्ट करवा दिया था।
चालुक्य नरेशों का राज्यकाल 500 वर्ष से अधिक रहा जिसमें कतिपय नरेश जिनधर्म सेवी रहे अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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