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राजगुरु एवं धर्मगुरु थे। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन द्वारा अधूरे छोड़े जयधवल को पूर्ण किया तथा संस्कृत में पार्वाभ्युदय, महापुराण की रचना की। उनका निधन 850 ई. के लगभग हुआ था तब इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने महापुराण को पूर्ण किया तथा उत्तरपुराण व अन्य ग्रंथों की रचना की। अमोघवर्ष स्वयं भी विद्वान था उसने संस्कृत में 'प्रश्नोत्तर रत्नावली' नीति ग्रंथ तथा कन्नड़ में 'कवि राजमार्ग' नामक छंद-अलंकार ग्रंथ रचे । उसका सेनापति बंकेयरस भी जैन था। उसके राज्यकाल में जैनधर्म को राष्ट्रधर्म का रूप प्राप्त हो गया था।
कृष्णराज, इन्द्रराज आदि भी जैनधर्म के अनुयायी थे। इस तरह राष्ट्रकूट वंश का शासन लगभग 250 वर्ष रहा। इसके अधिकांश नरेश उनके परिवार, अधिनस्थ राजा, सामंत सरदार, अमात्य मंत्री, सेनापति उस समय जैन धर्म के अनुयायी थे। लगभग दो तिहाई जनता भी जैन धर्मावलम्बी थी। ऐसा वहाँ के लेखों से पता चलता है। जिन्होंने मन्दिर, मठों आदि का निर्माण कराया।
राष्ट्रकूट वंश के राजाओं का वैवाहिक सम्बन्ध कलचूरी, गंग आदि जिन राजवंशों से था, वे भी जैनधर्म के अनन्य भक्त और संरक्षक थे। यही कारण है कि राष्ट्रकूट राजाओं को भी जैनधर्म से प्रेम था और उनमें से कई राजाओं ने दीक्षा ली। कई जैनाचार्य उनके गुरु थे, और कई विद्वानों का उन्होंने सम्मान किया। चोलों से उनके जो युद्ध हुए, वह धर्मयुद्ध कहे जा सकते हैं क्योंकि चोल शैव थे और राष्ट्रकूट जैनधर्म के संरक्षक थे।
राष्ट्रकूट के नरेशों ने अनेक प्रसिद्ध जैनाचार्यों का सम्मान किया। उन आचार्यों द्वारा धर्म प्रसार हुआ। राष्ट्रकूट नरेशों की छत्रछाया में लगभग 100 ग्रंथकारों ने, जो प्राय: दिगम्बर थे, लगभग 200 ग्रंथों की रचनी की। इन ग्रंथों में लगभग 110 संस्कृत, 35 प्राकृत, 20 कन्नड़, 15 अपभ्रंश और तमिल भाषा के हैं। धवल जयधवल जैसी आगमिक टीकाओं के अतिरिक्त सिद्धान्त तत्व, अध्यात्म, दर्शन, न्याय, कथा, भक्ति स्तोत्र, मंत्र आदि विषयों पर साहित्य सृजन हुआ। साथ ही व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, प्राणी विज्ञान, राजनीति जैसे लौकिक विषयों पर भी अनुपम साहित्य रचना हुई।
पाँचवी शती ई. के मध्य लगभग महाराष्ट्र प्रदेश में इस राजशक्ति का उदय हुआ, छठी शती में उसने बल पकड़ा और सातवीं में दक्षिणापथ के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्य में वह परिणत हो गयी। वंश का मूल पुरुष अयोध्या का सोमवंशी क्षत्रिय बताया जाता है, जो अपने भाग्य की परीक्षा के लिये दक्षिण आया इस वंश में सर्वप्रथम नाम विजयादित्य मिलता है जो उसी व्यक्ति अथवा उसके पुत्र का नाम था। उसने पल्लवराज के एक छोटे से भाग पर अधिकार करके अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू की, किन्तु पल्लवों के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जयसिंह जो जन्म के साथ नाथ और राज्यविहीन था, किन्तु वयस्क होते ही उसने ऐसा साहस, शौर्य और पराक्रम दिखाया कि गंग दुर्विनीत ने उसे अपनी छत्रछाया में ले लिया, उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और पल्लवों के विरुद्ध युद्धों में उसकी सहायता की। अन्तत: वातापी को राजधानी बनाकर चालुक्य राज्य की सुदृढ़ नींव जमाने में जयसिंह सफल हुआ और विष्णुवर्द्धन राजसिंह रणपराक्रमांक जैसे विरुद उसे प्राप्त हुए। वातापी (बादामि) अल्तेम, ऐहोल उसके राज्य के प्रसिद्ध नगर थे, और यहाँ जैनो की अच्छी बस्ती थी। जयसिंह की मृत्यु चन्द्रदण्ड पल्लव के साथ युद्ध में हुई। तब दुर्विनीत गंग ने उसके पुत्र रणराग एरेय्य सत्याश्रय को सिहांसन पर प्रतिष्ठित किया और भीषण युद्ध में चन्द्रदण्ड पल्लव को मार डाला। रणराग का पुत्र हुआ सत्याश्रय पुलकेशी प्रथम वास्तव में यही इस वंश का प्रथम नरेश एवं सही राज्य संस्थापक माना जाता है इसका काल 532 ई. से 565 तक रहा। इसके पश्चात् उत्तराधिकारी हुए-कीर्तिमान (565-597 ई.) इसके काल में जैनाचार्य विकीर्ति 50
अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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