Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 55
________________ उदय हुआ। इस शाखा के प्रथम राजा दन्तिवर्मन थे। उसके उत्तराधिकारी क्रमश: हए - 1. दंतिवर्मा - (650-670 ई.) ॥. इन्द्रराज प्रथम - (670-690 ई.) III. गोविन्दराज प्रथम ___ - (690-710 ई.) IV. कर्कराज प्रथम - (710-730 ई.) v. इन्द्रराज द्वितीय - (730-745 ई.) VI. दन्तिदुर्ग द्वितीय - (745-756 ई.) VII. कृष्णराज प्रथम - (756-775 ई.) VIII. गोविन्दराज द्वितीय - (730-745 ई.) IX. ध्रुवराज द्वितीय - (780 ई.) x. गोविन्दराज तृतीय - XI. अमोघवर्ष प्रथम - (821 ई.) XII. कृष्णराज द्वितीय - (900 ई.) XIII. इन्द्रराज तृतीय 915 ई.) अमोघवर्ष द्वितीय गोविन्द चतुर्थ अमोघवर्ष तृतीय कृष्णराज तृतीय (940 ई.) अमोघवर्ष चतुर्थ (968 ई.) कर्क द्वितीय (972 ई.) इन्द्रराज चतुर्थ (982 ई.) इनका राज्य एक समय उत्तर भारत में कन्नौज तक और दक्षिण भारत में मैसूर तक फैला हुआ था। राष्ट्रकूट वंश के शिलालेखों में उसे एक उत्तम और संसार में प्रसिद्ध राष्ट्रकुल कहा है। इसका उल्लेख रट्ट, राष्ट्रवर्म, राष्ट्रोर (राठोर) नामों से भी शिलालेखादि में मिलता हैं। इन्द्रराज द्वितीय के पुत्र दन्तिदुर्ग ने 742 ई. के लगभग एलौरा पर अधिकार किया और उसे राजधानी बनाया। एलौरा उस समय जैन, शैव, वैष्णव, बौद्ध चारों ही धर्मों व संस्कृति का केन्द्र था। 757ई. में उसने वातापी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन को पराजित कर अनेक उपाधियाँ धारण की और अपने आपको सम्राट घोषित कर दिया। युद्धों में अनेक नरेशों को परास्त किया तथा लगभग सम्पूर्ण दक्षिणापथ का सम्राट बन गया। उसी समय प्रसिद्ध जैन आचार्य वीरसेन हुए, जिन्होंने वाटग्रामपुर में निर्मित गुहा मन्दिर में तथा एलौरा में निर्मित चामरलेनी गुफा में साधना एवं साहित्य रचना की। 752ई. में दन्तिदुर्ग की नि:संतान मृत्यु होने पर उसके चाचा कृष्णराज प्रथम अकालवर्ष शुभतुंग सिंहासन पर बैठा। उसका राज्यकाल 757 से 773 ई. तक रहा। उसी ने 758 ई. में एलौरा का विश्वप्रसिद्ध गुहा मन्दिर कैलाश मन्दिर' पर्वत में से काट कर बनवाना शुरू किया जो लगभग 150 वर्षों में पूर्ण हुआ। गुहा मन्दिर, इन्द्रसभा, जगन्नाथ सभा आदि के निर्माण का श्रेय राष्ट्रकूटवंशी तथा ऐलवंशी नरेशों को प्राप्त है । ध्रुवराज की राजधानी में स्वयंभू महाकवि (अपभ्रंश) ने रामायण, हरिवंश आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। उसी काल में जैनाचार्य वीरसेन, विद्यानंदि आचार्य, परवादिमल्ल एवं गुरु कुमारसेन प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। इसकी राजधानी के समीप बाटनगर में पंचस्तूपान्वयी स्वामी वीरसेन का प्रसिद्ध जैन केन्द्र था, जिसमें शिष्य समुदाय शिक्षा पाता था उसी काल (780 ई.) में वीरसेन आचार्य ने महान ग्रंथ श्री धवल को पूर्ण किया और उसके पश्चात् जयधवला का एक तिहाई भाग लिखा था महाधवल की रूपरेखा तैयार की। उसी समय (783 ई.) में आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण की रचना की। ध्रुवराज का पुत्र गोविन्द तृतीय भी एक शौर्यशाली, जैनधर्म के प्रति सहिष्णु उदार नरेश था। इसने विद्यानन्दि, अनन्तकीर्ति, अनन्तवीर्य, त्रिभुवन, स्वयंभू आदि प्रसिद्ध जैनाचार्यो-विद्वानों का सम्मान किया, जिससे उसके शासनकाल में जैनधर्म विकसित हुआ। कर्कराज की वीरता, बुद्धिमत्ता, तत्परता, स्वामीभक्ति भी प्रसिद्ध है। जैन धर्मानुयायी अमोघवर्ष (821ई.) उस समय संसार के चार महान सम्राटों में एक प्रतापी सम्राट माना जाता था। तीन अन्य प्रतापी सम्राट थे - चीन का सम्राट, बगदाद का खलीफा, रूस का सम्राट । आचार्य जिनसेन इसके अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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