Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 53
________________ हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 19, अंक - 3, जुलाई-सित., 07, 47 - 58 दक्षिण भारत के राजवंश एवं उनका जैन संस्कृति को योगदान । रजनी जैन* साराश प्रस्तुत आलेख में विदुषी लेखिका ने दक्षिण भारत के विभिन्न जैन धर्मानुयायी राजवंशों, राजाओं उनके राज्यकाल में साहित्य सृजन करने वाले जैनाचार्यों तथा उनके कृतित्व की विस्तार पूर्वक चर्चा की है। - सम्पादक दिव्यता, भव्यता एवं उत्कृष्ट कला का यदि एक ही मूर्ति में समन्वय किया जावे तो वह नि:संकोच अनुपमेय कृति है, कर्नाटक राज्य के हासन जिले के प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रवणबेलबगोला में विन्ध्यगिरि पर्वत पर भूरे श्वेत वर्ण के ग्रेनाइट पाषाण की 57 फीट ऊँची गोम्मटेश्वर बाहुबली की एक ही शिला से निर्मित विश्व प्रसिद्ध मूर्ति है । जो भारतीय मूर्तिकला की श्रेष्ठ प्रतीक है। भगवान बाहुबली अपनी स्वतंत्र स्वाभिमानी वृत्ति, बल पराक्रम, शरीर सौष्ठव तथा घोर तपस्या के कारण जैन धर्मावलम्बियों में विशेष श्रद्धा प्राप्त हैं और इस अद्वितीय, विशाल एक पाषाणीय मूर्ति ने तो उन्हें देश - विदेश में पूजित-वंदनीय कर दिया है। गंगवंश के यशस्वी पुरुष चामुण्डराय जो मारसिंह द्वितीय एवं राचमल्ल चतुर्थ के मंत्री थे उन्होंने अपनी माता कालकदेवी की इच्छा पर गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण 10 वीं शताब्दी में कराया ।' अरिष्टनेमि (शिल्पी) का परिश्रम एवं चामुण्डराय की मातृ भक्ति एवं श्रद्धा ही मूर्ति में एकाकार होकर दिव्यता को आज प्रकट कर रही है । इतिहास पर दृष्टिपात करने से मूर्ति का प्रतिष्ठा वर्ष 978 ई. और 990 ई. के मध्य होना चाहिए क्योंकि चामुण्डराय का निधन 990 ई. के लगभग हुआ था। मूर्ति की प्रतिष्ठा चामुण्डराय के गुरु नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती द्वारा सम्पन्न हुई थी। वह स्नेह से चामुण्डराय को गोम्मट कहा करते थे। चामुण्डराय ने उनसे निवेदन किया कि जैन सिद्धान्त को समझने के लिये वह सिद्धान्त विषयों का सार संक्षेप में लिख दें जिससे वह विषय समझ में आ जाये । इसी निवेदन पर नेमिचन्द्र आचार्य ने षट्खण्डागम के 6 खण्डों का सार पंचसंग्रह नामक प्राकृत भाषा में ग्रंथ लिखकर उस प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम चामुण्डराय के गोम्मट नाम के कारण 'गोम्मटसार' प्रचलित कर दिया। चामुण्डराय कुशल सेनापति तथा मंत्री थे, उन्होंने युद्ध में शत्रुओं को परास्त कर अनेक उपाधियाँ अर्जित की रोडग के युद्ध में बज्जलदेव को पराजित कर 'समर धुरन्धर", गोनूर के युद्ध में नोलम्बों को पराजित करने पर "वीर मार्तण्ड" उच्छंगि के दुर्ग में राजादित्य को त्रस्त करने पर "रणरंगसिंह", बागेयुर के दुर्ग में त्रिभुवन वीर को समाप्त करने एवं गोविन्दर को उस दुर्ग में प्रविष्ट कराने के लिये "वैरीकुलकालदण्ड" तथा अन्य मुद्दों में विजय प्राप्त करने के लिये ''भुजविक्रम", "भट्टमारि", "प्रतिपक्ष राक्षस", "नोलम्बकुलान्तक" समरकेशरी, सुभटचूडामणि, समर परशुराम आदि उपाधियाँ प्राप्त हुई थी। उन्होंने अपने कौशल एवं पराक्रम से नोलम्बों, चालुक्यों एवं बज्जलों को अनेक बार परास्त कर हमेशा जैन धर्मावलम्बी गंग नरेशों की रक्षा की तथा उनके स्वामी राष्ट्रकूट सम्राटों का भी संरक्षण किया। * शोध छात्रा - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584 महात्मा गाँधी मार्ग, इन्दौर 452001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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