Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ भूभाग का एक छत्र स्वामी था, किन्तु दिसम्बर 973 में उसका सम्पूर्ण राज्य उसके भतीजे कर्क द्वितीय के हाथों छिन गया और 250 वर्ष से चला आया विशाल शक्तिशाली राष्ट्रकूट साम्राज्य एक स्मृति बन कर रह गया। उसके स्थान में वातापि के प्राचीन पश्चिम चालुक्य वंश का पुनरुत्थान हुआ और इसका श्रेय चालुक्य वीर तैलप को है। वह एक पराक्रमी योग्य नरेश था विद्वान गुणी पुरुषों का वह आदर करता था। वह सर्व धर्म सहिष्णु उदारदानी नरेश था जैन धर्म के साथ उसकी श्रद्धा वैसी ही थी जैसी पूर्ववर्ती कदम्बों, गंगों, पश्चिमी चालुक्यों एवं राष्ट्रकूटों की । कोगलि नामक स्थान में स्थित चेन्नपार्श्ववसदि का सन् 992 ई. का शिलालेख सूचित करता है कि यह जैनधर्म अनुयायी राजा था। कन्नड़ का जैन महाकवि रत्नाकर उसका राजकवि था। महामंत्री धल्ल, सेनापति मल्लप आदि भी जिन भक्त थे। नागदेव की पत्नी साहित्य सेवा, धर्मप्रभावनारत अहिमब्बे ने महाकवि पोन्न के शांतिपुराण की 1000 प्रतियाँ वितरित की थी तथा स्वर्ण मणि- माणिक्यादि की 1500 जिन मूर्तियाँ बनवाकर विभिन्न मन्दिरों में स्थापित की थी। अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराया और प्रकार का दान अनवरत दिया। धर्म कार्यों में सम्राट की अनुमति प्रसन्नता एक सहायता थी। · इसका उत्तराधिकारी पुत्र सत्याश्रय इरिव बेदेंग (997-1009 ई.) था। बोलों की तरह यह भी जैन धर्म का भक्त था । सत्याश्रय ने एक जैन गुरु की स्मृति में अगदि नामक स्थान में भव्य निषद्या निर्माण करायी थी। आगे विक्रमादित्य पंचम, अय्यन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय ( 1014-1042 ई.) राजा हुए। जयसिंह द्वितीय जैन धर्म का विशेष भक्त था, अनेक जैन विद्वानों एवं गुरुओं का उसने सम्मान किया तथा साहित्य निर्माण को प्रोत्साहन दिया। आचार्य वादिराज ने उसकी राजसभा में परवादियों के साथ अनेक शास्त्रार्थ किये उनकी विजय के उपलक्ष्य में राजा ने उन्हें स्वर्णमुद्रा युक्त जयपत्र तथा 'जगदेकमल्लवादी' उपाधि प्रदान की थी। यशोधरचरित, एकीभाव स्तोत्र तथा अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय की टीका आदि ग्रंथ भी इन्होंने रचे । अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्य प्रभाचन्द्र भी इसी समय हुए । चालुक्य जयसिंह का विरुद मल्लिकामोद था और उसने बलिपुर में मल्लिकामोद शान्ति वसदि नामक जिनालय बनवाया था। 1 तदुपरांत उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल (1042-68 ई.) राजा हुआ। उसने चोलो को युद्ध में पराजित किया, उसके हाथों चोल नरेश मारा गया। कोगलि शिलालेख में इस स्याद्वाद मत का अनुयायी लिखा है। सोमेश्वर प्रथम ने जैनाचार्य अजितसेन का सम्मान किया और उन्हें शब्दचतुर्मुख उपाधि प्रदान की। इसका सेनापति (दण्डनाथ) शांतिनाथ भी जैन था। इन्होंने कई जैन मन्दिर बनवाये और उनके लिये दान दिये। 1068 ई. में एक भयानक रोग से पीड़ित होने के कारण इस राजा ने तुंगभद्रा में जल समाधि ली। यह राजा इस वंश के महान नरेशों में से था । उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल ( 1068-76 ई.) भी चोलो के साथ युद्ध करता रहा। इसने कदम्बों का दमन किया और चोलो पर विजय प्राप्त की। अपने पूर्वजो की भांति यह भी जैन प्रतीत होता है। उसने आचार्य कुलचन्द देव को शांतिनाथ वसदि के लिये भूमि प्रदान की थी और मन्दिर में एक मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। 1076 ई. में उसका छोटा भाई विक्रम उसे बन्दी करके स्वयं राजा बना। इसने जैनाचार्य वासवचन्द्र का सम्मान करके उन्हें 'बालसरस्वती' उपाधि प्रदान की थी तथा चालुक्य गंग परमानंदि जिनालय नाम का मन्दिर बनवाया था। विभिन्न वसदियों मठों में विभिन्न भारतीय धर्मों एवं दर्शनों की शिक्षा साथसाथ दी जाती थी। इस राजा के समय में भारतीय संस्कृति का बहुमुखी संवर्धन हुआ। यह नरेश सर्वधर्म सहिष्णु था और सब धर्मों का प्रतिपालन करता था यद्यपि उसका निजी एवं कुलधर्म जैन धर्म था। होयसल वंश पूर्व मध्यकाल में दक्षिण भारत का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तिशाली राजवंश था ये अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 53 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96