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अन्तिम दो वर्ण सामाजिक संरचना में महत्वहीन थे । वस्तुतः व्यवस्था के विरुद्ध आवाज इन्हीं वर्णों से उठनी चाहिए थी, किन्तु ऐसा नहीं हुआ । वैचारिक क्रांति का सूत्रपात क्षत्रिय वर्ण से हुआ। बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के प्रणेता क्षत्रिय ही थे जो इस तथ्य को इंगित करते हैं, कि वास्तव में व्यवस्था कितनी निकृष्ट हो चुकी थी । प्रस्तुत शोध पत्र में इन्हीं सब तथ्यों का विश्लेषण एवं आंकलन किया गया है, कि जैन धर्म के प्रादुर्भाव से तत्कालीन भारत की राजनैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार प्रभावित हुई? इस सबका राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों से क्या सरोकार था ? क्या यह मात्र प्रतिक्रियावादी धर्म सुधार आन्दोलन था?
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गौतम बुद्ध के समय आविर्भूत होने वाले अरूढ़िवादी महापुरुषों में जैन धर्म के महावीर स्वामी का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। जैन परम्पराओं में चौबीस तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है, किन्तु तत्कालीन स्रोतों से हमें शोध एवं गवेषणा के पश्चात् तेईसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के विषय में संक्षिप्त जानकारी ही प्राप्त होती है वस्तुतः महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे ये छठी शताब्दी ईसा पूर्व के जैन धर्म आन्दोलन के प्रवर्द्धक थे।' यह निश्चित है कि जैन धर्म एवं उसकी कुछ शिक्षाएं महावीर से पूर्व ही अस्तित्व में आ चुकी थी । "Thus, Unlike Buddha, Mahavira was more a reformer of an existing religion and possible of a church than the founder of new faith,.................he is represented as following a well established creed, most probably that of Parsva"."
महावीर का जन्म 599 ई. पू. में कुण्डलपुर ग्राम में नाथवंशीय राजा सिद्धार्थ के यहाँ हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे, जो वज्जि संघ का प्रमुख सदस्य था । उनकी माता वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की प्रथम कन्या थी। इस प्रकार मातृ पक्ष से वे मगध के हर्यक कुल के राजाओं बिम्बसार एवं अजातशत्रु के निकट सम्बन्धी थे । श्वेताम्बर जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र उनके कठोर तपश्चर्या एवं कायक्लेश का बड़ा ही रोचक विवरण प्रस्तुत करता है:- " प्रथम 13 महीनों में उन्होंने कभी भी अपना वस्त्र नहीं बदला। सभी प्रकार के जीव जन्तु उनके शरीर पर रेंगते थे । तत्पश्चात उन्होंने वस्त्रों का पूर्ण त्याग कर दिया और नंगे घूमने लगे। शारीरिक कष्टों की उपेक्षा करके वे अपनी साधना में रत रहे। उन्होंने न तो कभी धैर्य खोया और न ही अपने उत्पीड़कों के प्रति मन में द्वेष अथवा प्रतिशोध रखा। वे मौन एवं शान्त रहें।" प्रो. ए. एम. घाटगे लिखते है कि "This was probably the first important step in the reformation of the church of Pārsva.3
उनके भ्रमणकारी जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना नालन्दा में मक्खलिपुत्तगोशाल से उनकी भेंट थी। यह सन्यासी उनका शिष्य बन गया, किन्तु छः वर्षों बाद उनका साथ छोड़कर उसने "आजीवक" सम्प्रदाय की स्थापना की। बारह वर्षों की कठोर तपस्या एवं साधना के पश्चात् जृम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वे "केवली'' जिन (विजेता) अर्हत् (योग्य) तथा निर्ग्रन्थ कहे गये। अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें महावीर नाम से सम्बोधित किया गया। शीघ्र ही जैन धर्म भारत के प्रमुख धर्मों में शुमार हो गया।
गौतम बुद्ध के समान महावीर स्वामी ने भी वेदों की अपौरूषेयता स्वीकार करने से इन्कार कर
अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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