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दिया तथा धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों और पाखण्डों का विरोध किया। उन्होंने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया। जिसे अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद कहा गया है। इस मत के अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म (पहल) होते हैं तथा व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही धर्मों को जान सकता है। पूर्ण ज्ञान केवल उनके (केवली) लिए ही सम्भव है। अत: उनका कहना था कि सभी विचार अंशत: सत्य होते हैं। महावीर स्वामी द्वारा दिया गया यह विचार अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह उनकी बौद्धिक सहिष्णुता का भी परिचायक हैं। महावीर सष्टि के कण-कण में जीवों का वास मानते थे। इसी कारण उन्होंने अहिंसा पर विशेष बल दिया।
सामान्यत: यह विश्वास कर लिया जाता है, कि जैन धर्म पूर्णत:जाति व्यवस्था के विरुद्ध है। वस्तुत: ऐसा नहीं है। डॉ. राधाकृष्णन ने "भारतीय दर्शन" में स्पष्ट लिखा है कि "जैन जाति प्रथा के विरुद्ध नहीं है, जो उनके अनुसार आचरण से सम्बन्ध रखती है। मनुष्य अपने कर्मों से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बन सकता है।............ इसी तथ्य को डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है- "Jainism did not oppose the caste system and was more accommodating to Hinduism than Buddhism". जैन ब्राह्मण शब्द को एक सम्मानीय शब्द समझते हैं जिसका प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए किया जा सकता है जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। जन्मगत जाति का मिथ्याभिमान और उसके कारण जातियों से पृथक रहने के विचार को जैन धर्म के अनुयायी दूषित मानते हैं। यही कारण है कि जैन धर्म एक खुला धर्म बन सका। आज भी भारत में इसके अनुयायी अच्छी संख्या में विद्यमान है। यद्यपि प्राचीन भारत में बौद्धों की अपेक्षा जैन संख्या में कम तथा प्रचार-प्रसार का उत्साह जैन धर्मावलम्बियों में कम था। इस ऐतिहासिक तथ्य की व्याख्या करते हुए श्रीमती स्टीवेंसन ने लिखा है- "जैन मत का स्वरूप कुछ ऐसा था, कि जिसके कारण यह आवश्यकता पड़ने पर अपने आवश्यक अंगों के जरिये आपत्ति से अपनी रक्षा कर सकने की क्षमता रखता था। बौद्ध मत के समान इसने कभी अपने को इस समय के प्रचलित मतों से एकदम पृथक् नहीं किया। इसने सदा ब्राह्मणों को अपने पारिवारिक पुरोहितों के स्थान में नियुक्त किया जो इसके जन्म के समय भी सब संस्कारों के अध्यक्ष होते थे और प्राय: वे ही मृत्यु एवं विवाह आदि के समय और मंदिरों में पूजन आदि के लिये भी धर्माध्यक्ष होते थे। इसके अतिरिक्त अपने प्रमुख चरित्रानायकों में जैनियों ने हिन्दू देवताओं, यथा राम एवं कृष्ण आदि के लिए भी कुछ स्थान शलाका पुरुष के रूप में सुरक्षित रख लिये थे। महावीर की संगठन संबंधी प्रतिभा के कारण भी जैन मत एक उचित स्थान में खड़ा रहा क्योंकि जैनमत ने सर्वसाधारण को भी संघ के आन्तरिक भाग के रूप में स्वीकृत किया, जबकि बुद्धमत में उनका कोई भाग न था और न उसकी व्यवस्था में उनके लिए कोई स्थान था। इसलिए जब सारे देश में अत्याचार के तूफान आये तब जैनमत ने सरलता के साथ हिन्दू धर्म तथा विजेताओं को जैनमत एवं उस विशाल हिन्दू धर्म में कोई भिन्नता प्रतीत न हो सकी।
तत्कालीन समय में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार एवं विस्तार का श्रेय महावीर स्वामी की धार्मिक शिक्षाओं के अतिरिक्त दो अन्य बातों को भी जाता है। प्रथम, जैन धर्म को प्रमुख प्राचीन भारतीय शासकों का संरक्षण प्राप्त होना। द्वितीय, वह तथ्य जिसका विश्लेषण डॉ. रोमिला थापर ने अपने ग्रन्थ में किया हैं। वह तथ्य यह है कि जैन धर्म मूलत: अहिंसा पर बल देता है। अहिंसा वह भी मानव मात्र अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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