________________
वर्ष - 19, अंक - 3, जुलाई-सितम्बर 2007, 41-45 अर्हत् वचन
के जैन धर्म : तत्कालीन ऐतिहासिक सरोकार कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
- शिखरचन्द्र जैन*
- मनोज कुमार जैन** सारांश छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व का विश्व इतिहास में विशिष्ट स्थान है । इस शताब्दी से ही प्राचीन भारत में राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक बदलाव दिखाई दिए। इस शताब्दी में कई नवीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ। फलस्वरूप मानव मस्तिष्क से वैचारिक रक्तहीन क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। इस काल तक समाज ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्षों में विभाजित हो चुका था। वैचारिक क्रांति का सूत्रपात क्षत्रिय वर्ण से हुआ। इसने तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था को प्रभावित किया । महावीर स्वामी जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे। महावीर स्वामी से पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था । वे तो छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म आन्दोलन के पुनरुद्धारक थे। महावीर स्वामी मातृ पक्ष से अजात शत्रु के निकट सम्बन्धी थे उन्होने 30 वर्ष की अवस्था में ग्रह त्याग किया और तपस्या में लीन हो गये इस बीच उनके कई शिष्य बनें कुछ ने उनका साथ छोड़ा। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने धार्मिक सिध्दान्तों का प्रचार प्रसार किया और जैनधर्म भारत का प्रमुख धर्म बन गया। महावीर स्वामी ने अनेकान्तवाद अर्थात स्यादाद का मार्ग अपनाया । जैन धर्म पूर्णतः जाति व्यवस्था के विरुद्ध नहीं है । जैन धर्म में ब्राहाण को भी उचित स्थान दिया गया है । जैन धर्मावलाम्बियों की संख्या भारत में बौद्धों से अधिक है। जैन धर्म को उस समय कुछ प्रमुख प्राचीन भारतीय राजवंशों का संरक्षण प्राप्त हुआ। जैन धर्म को अहिंसक कार्यक्षेत्र वाले लोगों ने अपनाया । राजनैतिक परिदश्य को प्रभावित करने की दृष्टि से अजातशत्रु, उदयन और नन्द राजाओं को ले सकते हैं। यह जैन धर्म का ही प्रभाव था कि मगध में नन्द वंश का शासन स्थापित हुआ जिन्हें इतिहासकार शूद्र मानते हैं। इस शासन का पर्याप्त विस्तार हआ जैन धर्म के कारण ही ब्राह्मणों को कई सुधारात्मक प्रयास करने पड़े ब्राह्मणों में आत्मावलोकन की प्रवृत्ति का विकास भी जैनों के कारण ही हुआ।
विश्व के अनेक देशों के साथ-साथ भारत में भी यह काल मानव मस्तिष्क में हुई जबरदस्त उथल-पुथल का साक्षी बना। लोग पहले से चले आ रहे धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों से ऊब चुके थे । सामाजिक धार्मिक कठोरताओं से उन्हें चिढ होने लगी थी। लोग इस पार्थिव जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने के लिए सतत् प्रयत्नशील होने लगे। वस्तुतः भारत में इस काल तक आते-आते सामाजिक, धार्मिक जीवन में संकीर्णता, अन्धविश्वास, जटिलता और अनेक वर्जनायें आ चुकी थी।
इस काल तक समाज चार वर्णों में विभाजित हो चुका था-ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। * विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरैना (म.प्र.) * अतिथि सहायक प्राध्यापक, राजनीति विज्ञान शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरैना (म.प्र.)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org