Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 45
________________ सिद्ध शिला का आकार अर्धचन्द्राकार है, यह अर्धचन्द्र मोक्ष का प्रतीक है। 15 अर्धचन्द्र के बीच का बिन्द उस अवस्था को द्योतित करता है, जब आत्मा को पूर्ण चेतना प्राप्त हो जाती है और वह पुद्गल (पदार्थ) के संसर्ग से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाती है। स्वस्तिक का एक अर्थ और भी है आडी व खड़ी रेखायें क्रमशः जीव व पुद्गल को दर्शाती, शेष चार रेखायें जीव की गतियों में उत्पत्ति को प्रदर्शित करती है । इन चार रेखाओं को काटने वाली + अन्य चार रेखायें इन गतियों में पर्याय के मिटने अर्थात् व्यय की प्रतीक है तथा चार बिन्दु द्रव्य की स्थिरता के सूचक है। इस तरह स्वस्तिक जैन धर्म में वर्णित द्रव्य के उत्पाद (उत्पन्न होना), व्यय (मिटना) और ध्रौव्य (अविनश्वरता) को प्ररूपित करने वाला प्रतीक भी है। कहीं - कहीं। स्याद्वाद दर्शन का प्रतीक भी स्वस्तिक को माना है । स्वस्तिक के 'सु' शब्द का अर्थ है समस्त, अस्ति = स्थिति, क = प्रकट करने वाला अर्थात् समस्त संसार की समस्त वस्तुओं की वास्तविक स्थिति प्रकट करने की सामर्थ्य स्याद्वाद दर्शन में है जिसे स्वस्तिक प्रतिबिम्बित करता है। 16 स्वस्तिक में जैन धर्म, दर्शन की संपूर्ण कथा सन्नहित है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में ग्रंथ आरंभ के पहले स्वस्तिक चिन्ह तथा ग्रंथ समाप्त करने पर भी स्वस्तिक चिन्ह मंगल सूचक होने के कारण दिया गया है। व्यापक रूप से पूज्य व प्रचलित मंदिरों, ध्वजाओं पर स्वस्तिक का अंकन देखने को मिलता है। आज भी यह अक्षत पुंजो में बनाया जाता है, चौबीस तीर्थंकरों के लांछनों (चिन्ह) में से एक है। यह सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का चिन्ह है। कर्मयोग का परिचायक स्वस्तिक व्यक्ति को चारों दिशाओं में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। स्वस्तिक महा प्रतीक है, भारतीयता का, कर्मठता का और कर्मयोग का यह एक महान संदेशवाहक है। सन्दर्भ :1. चतुर्वेदी, गोपाल मधुकर, भारतीय चित्रकला, साहित्य संगम, इलाहाबाद, 1989, पृष्ठ - 111 जोशी, महादेव शास्त्री, हमारी संस्कृति के प्रतीक, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1989, पृष्ठ - 117 जैन, हीरालाल, तीर्थकर (इन्दौर), जनवरी 75, पृष्ठ- 27 सिंह, वीरेन्द्र, प्रतीक दर्शन, मंगल प्रकाशन, जयपुर, 1977, पृष्ठ- 45 गुप्ता, जगदीश, प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली - 5, पृष्ठ- 418 सिंह, वीरेन्द्र, प्रतीक दर्शन, पृष्ठ - 45 वही, पृष्ठ - 45 शर्मा, योगेशचन्द्र, कादम्बिनी 1998, पृष्ठ - 161 देखें, संदर्भ - 3, पृष्ठ - 22, 28 देखें, संदर्भ - 3, पृष्ठ - 27, 28 11. जैन, भागचन्द्र, देवगढ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन, भारतीय ज्ञानपीठ,दिल्ली-1974, पृष्ठ- 110 12. शास्त्री, नेमिचन्द्र, गुरू गोपालदास बरैया स्मृति ग्रंथ - अ.भा.दि. जैन विद्वत् परिषद, सागर, 1974, पृष्ठ - 337 देखें, संदर्भ - 3, पृष्ठ - 28 14. देखें, संदर्भ - 3, पृष्ठ - 22 15. देखें, संदर्भ - 12, पृष्ठ - 337 16. देखें, संदर्भ - 3, पृष्ठ - 22,28 17. देखें, संदर्भ - 12, पृष्ठ - 132 प्राप्त : 16.06.07 अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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