Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 43
________________ अर्हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 19, अंक - 3, जुलाई-सितम्बर 2007, 37-39 जैन धर्म में स्वस्तिक (सांथिया) जया जैन* सारांश प्रस्तुत आलेख में भारतीय परम्परा में सर्वमान्य मांगलिक प्रतीक स्वस्तिक के महत्व तथा उसके अर्थ को स्पष्ट किया गया है। स्वस्तिक एक मांगलिक प्रतीक है । जिसके आकार में मंगल का भाव समाहित हो गया है। जिसके विन्यास की रेखायें और दिशायें मंगल तत्व का संकेत करती हैं। रूप, भाव और तत्व इस मांगलिक प्रतीक में मिलकर एक हो गये हैं। स्वस्तिक को जैन धर्म में मंगलकारी माना गया है। स्वस्तिक की उत्पत्ति ऋग्वेद से भी प्राचीन है। स्वस्तिक पूजा का चलन हमें लोक संस्कारों से लेकर शैल चित्रों, सिन्धु घाटी की सीलों व सभी आस्तिक धर्मों में मांगलिक रूप से मिलता है। किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित कर पूजन किया जाता है। 'स्वस्तिक' शब्द 'सु-अस' धातु से बना है। 'सु' याने अच्छा, कल्याण, मंगल और 'अस' अर्थात् सत्ता या अस्तित्व। तीनों लोक, तीनों कालों तथा प्रत्येक वस्तु में जो विद्यमान है, वही सुन्दर, मंगल, उपस्थिति का स्वरूप है । यही भावना स्वस्तिक की है। 'स्वस्तिक' शब्द 'सॉथिया' रूप में भी प्रचलित है। 'सॉथिया' शब्द प्राकृत का अपभ्रंश रूप है । इसका प्राकृत शुद्ध रूप 'संठवो' होना चाहिये। जिसका संस्कृत रूप संस्था के संस्थापक होता है। इसका सीधा शब्दार्थ होता है। संस्थिति करनेवाला, संस्थापक । इतिहास साक्षी है कि इस युग के आदि में लोगों के जीवन-निर्वाह की स्थिति भगवान ऋषभदेव ने की थी और उन्होंने ही सर्वप्रथम धर्म की स्थापना की थी, अतः लोग उन्हें 'संस्थापक' कहने लगे, जो कि उनके कार्यों के अनुरूप ही नाम था। इस प्रकार इसी 'संस्थापक' शब्द का प्राकृत-अपभ्रंश में सॉथिया प्रचलित हो गया प्रतीत होता है। * प्राध्यापिका - चित्रकला विभाग, कमला राजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.) निवास - एफ-3, शासकीय आवास कम्पू, ग्वालियर (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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