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कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं होती। वनों (कल्पवृक्षों) पर आधारित जीवन शैली में किसी भी प्रकार की हिंसा, प्रदूषण या क्षरण नहीं होता। पूर्णरूपेण सहजीवी सहयोगी व्यवस्था रहती है। सभीजीव परस्पर सहयोगी सहजीवी रहकर परस्परोपग्र हो जीवानाम् चिरन्तन सूत्र की सार्थकता को प्रतिपादित करते हैं। मनुष्य भी स्वतः गिरे फलों को खाकर उनके बीजों को बिखेर कर (Dispersal of seeds) वृक्षों की सहायता करते हैं। वनों पर आधारित जीवन शैली में किसी प्रकार का श्रम या धन का व्यय नहीं होता।
आधुनिक कृषि में जुताई, बुवाई, सिंचाई, खाद एवं कीटनाशकों से अत्यधिक हिंसा होती है, प्रदूषण बढ़ रहा है, क्षरण हो रहा है। कृषि की लागत इतनी बढ़ गई है और निरन्तर बढ़ रही है कि अरबों रूपयों के अनुदान की बैसाखी पर ही चल पा रही है। कृषक आत्महत्या भी कर रहे हैं। मेरा प्रोजेक्ट वनों से भोजन भारत सरकार के विज्ञान एवं प्राद्योगिकी विभाग से स्वीकृत हुआ था और उस पर स्नेह शर्मा ने पी. एच. डी. की है। इसके अन्तर्गत वनों के वृक्षों के खाद्य बीजों की पौष्टिकता (उपलब्ध प्रोटीन, कारबोहाइड्रेट, वसा, रेशे, खनिज तत्व) का आकलन किया गया। स्वीकृत धन राशि एवं निर्धारित समय सीमा में बीस प्रकार के वृक्षों के बीजों का विश्लेक्षण किया जा सका जिनकी पौष्टिकता कृषि से प्राप्त अनाजों, दालों से अधिक पाई गई। वनों से औसत 2 से 5 टन पौष्टिक खाद्य बीज प्रति हेक्टर प्रति वर्ष बिना किसी श्रम एवं धन के व्यय के उपलब्ध हो जाते हैं, खाद्य, फल, फूल, पत्ते आदि इसके अतिरिक्त हैं। वनों से खाद्य सामग्री के अतिरिक्त आवासीय लकड़ी, औषधीय सामग्री एवं अनेक रसायन भी उपलब्ध होते हैं जिन पर आधारित लघु-वृहत् उद्योग चल सकते हैं। यदि अहिंसकाहार ही अभीप्सित है तो कल्पवृक्षों (वनों) पर आधारित जीवन शैली अपनाना आवश्यक है। यह संभव है और इसी में प्राणी मात्र का हित अन्तर्निहित है।
सन्दर्भ स्थल :
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समणसुत्तं, गाथा 148, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी, सन् 1975 पुस्तक द्वय -
1. Pristine Jainism by S.M. Jain, Parshvanath Vidyapeeth, Varanasi, 2003
2. Environmental Ethics by S. M. Jain, Prakrit Bharati Academy, Jaipur, 2006
महावीर - गौतम संवाद
वही
छहढाला, कविवर दौलतराम, ढाल 4, छंद 2
वही, ढाल 6, छंद 12
मनुस्मृति, 10 / 83-84
ऋग्वेद, 10/146/6
वही, 10 / 146 / 5
मनुस्मृति 6/21
वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकांड, 50 / 44
वही, 50, 31 / 26, 27 / 16
तत्वार्थसूत्र, अध्याय-5, सूत्र- 21
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प्राप्त : 27.06.07
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अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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