Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 35
________________ वृक्ष और बाद में सागवान जैसे वृक्ष पनप सकेगें। यदि मानवीय हस्तक्षेप नहीं हो तो वानस्पतिक विकास क्रम में अन्ततः आम जामुन जैसे वृक्ष पनपेंगे। इस प्रकार उत्तरोत्तर विकास क्रम में पूर्व पूर्व की प्रजातियाँ क्रमशः कम होकर लुप्त होती रहती हैं। इसे सक्सेशन कहते हैं। चरम विकास की अवस्था को क्लाइमेक्स (Climax) कहते हैं। इस अवस्था में आगे परिवर्तन नहीं होता और इसी रूप रहती है। यदि मानवीय हस्तक्षेप से कटाई, चराई, आग आदि होती है तो उनकी अधिकता के अनुरूप मन्द-तीव्र गति से क्षरण प्रारंभ हो जाता है, चरण क्लाइमेक्स से क्रमश: नीचे की अवस्था आने लगती है और अन्ततः भूमि वनस्पति विहीन हो जाती है। इसे रिट्रोग्रेशन कहते हैं। सक्सेशन (विकास) और रिट्रोग्रेशन (पतन ) को स्थिति के अनुरूप प्रबन्धन से किसी भी स्तर पर रोका जा सकता है। वानिकी में सागवान विकास क्रम में क्लाइमेक्स से नीचे के स्तर की प्रजाति है और चरम विकास (क्लाइमेक्स) की प्रजातियों से मूल्यवान है अत: नियन्त्रित चराई, कटाई, आग से विकास क्रम को रोक दिया जाता है। इस प्रकार विकास क्रम को रोकना, आगे या पीछे ले जाना वानिकी प्रबन्धन में क्षेत्रों में पारिस्थितिकी एवं आवश्यकता के अनुसार किया जा रहा है। इसी आधार पर प्राकृतिक संसाधनों की क्षमता की सीमा में उपयोग को नियन्त्रित कर काल परावर्तन को नियन्त्रित करना निश्चितरूपेण संभव है। विदेह क्षेत्रों इसी सिद्धान्त के अनुसार काल-परावर्तन पर नियन्त्रण संभव हुआ होगा। इस पृथ्वी पर भी यदि इस सिद्धान्त का अनुपालन किया जावे तो वर्तमान दुखमा काल को दुखमा दुखमा में जाने से रोका जा सकता है और इसके विपरीत पुनः क्रमशः दुखमा सुखमा, सुखमा दुखमा, सुखमा, सुखमा सुखमा की स्थिति भी लाई जा सकती है। यह मात्र परिकल्पना नहीं है, विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है । - Jain Education International - सुखमा सुखमा और सुखमा कालखन्डों में मानव समुदाय पूर्णरूपेण कल्पवृक्ष अर्थात् वनों पर ही निर्भर रहता था। सभी आवश्यकताएं विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों से उपलब्ध विभिन्न पदार्थो से पूरी होती थी। मनुष्य की आवश्यकता की ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो वनों से उपलब्ध नहीं हो सकती। वर्तमान में भी यह संभव है। प्रथम टोंग्या (Taungya) पद्धति से कृषि वानिकी प्रारम्भ की जाये जब तक वृक्ष बड़े होकर फल-फूल - बीज, आदि नहीं देने लगें तब तक कृषि उपज से काम चलाया जाता रहें। पांच-छ: या अधिकतम दस वर्षो में वृक्ष उपज देने लगेंगे फिर कृषि बंद कर दी जावे। वन एक बार सुस्थापित होने पर बिना किसी मानवीय श्रम एवं धन के चिरकालीन यथावत् रहते हैं, यदि उनका क्षमता के अनुरूप ही दोहन किया जावे। किसी भी प्रकार की भूमि की क्रिया ( हल चलाना आदि) नहीं करनी पड़ती, चूहे आदि जीव भूमि को उलट-पुलट करते रहते हैं। पशु-पक्षी विभिन्न प्रजातियों के बीज बिखेरते रहेंगे। सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि जल संरक्षण के लिये वृक्षों से अधिक सक्षम और सस्ता वस्तुतः निःशुल्क अन्य कोई उपक्रम नहीं है, प्रयोगों से यह प्रमाणित किया गया है कि सघन वन क्षेत्र में वर्षा का 99 प्रतिशत से अधिक पानी वहीं रूक जाता है, सोख लिया जाता है, जिससे भूमिगत जलाशय परिपूर्ण रहते हैं मात्र एक प्रतिशत पानी ही बहता है जिससे वर्षाकाल में विनाशकारी बाढ़ों का प्रकोप समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत वृक्ष विहीन भूमि में वर्षा की 99 प्रतिशत जल बह जाता है और मात्र एक प्रतिशत ही रुक पाता है जिससे वर्षा काल में विनाशकारी बाढ़े आती हैं और फिर जल स्त्रोत नदी, नाले वर्ष भर सूखे रहते हैं। वनों में किसी प्रकार के उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती, निरन्तर गिरती पत्तियों, टहनियों से उत्तम उर्वरक सदैव उपलब्ध रहता है। चूंकि वन क्षेत्रों में विभिन्न प्रजातियाँ एक साथ होती है और उन पर रहने वाले कीड़े भी विभिन्न प्रकार के होते हैं अतः प्राकृतिक संतुलन रहता है। किसी भी प्रकार का कीटों का प्रकोप नहीं होता। अतः अर्हतु वचन, 19 (3), 2007 31 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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