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लिए आर्थिक संसाधन नहीं थे। अतः वन क्षेत्रों में भूमिहीन व्यक्तियों को कृषि के लिए भूमि इस शर्त पर दी गई कि वे 10-15 फीट के फासले पर वृक्षों के पौधे लगाएंगे जो उन्हें वन विभाग से दिए जायेंगे। पाँच-छ: वर्ष में जब पौधे बड़े होकर छाया करने लगे तो अन्य स्थान पर इसी शर्त पर कृषि की अनुमति क्रमशः दी गई। इसी पद्धति से बिना किसी व्यय के सफल वृक्षारोपण वृहत् क्षेत्र में हो गया, ऐसा अच्छा जो अब करोडो की राशि में भी नहीं हो पा रहा है। यह पचास के दशक के अन्त तक रहा। बाद में स्वार्थी नेताओं ने भूमिहीन कृषकों को उकसाया और टीनेन्सी और राजस्व एक्ट्स के प्रावधानों के अन्तर्गत वनभूमि पर स्वामित्व दिलाने लगे। वन विभाग को विवश इसे बंद करना पड़ा।
जैन वाङ्गमय में काल परावर्तन का जो विशद विवरण मिलता है उसमें यह उल्लेख विशेष रूप से विचारणीय है कि कुछ क्षेत्र जिन्हें विदेह क्षेत्र कहा गया है और उनके अलग अलग नाम भी दिये गये हैं, इनमें काल परावर्तन नहीं होता, कहीं सुखमा तो कहीं सुखमा दुखमा रूप ही प्रवर्तता रहता है। वैज्ञानिक अवधारणा में ये कहीं सुदूर ऐसे पृथ्वी- साम्य ग्रह होंगे जहां जीवन है, मानवीय सभ्यताएं है। यह बिन्दु महत्वूपर्ण है कि काल परावर्तन सुखमा सुखमा रूप नहीं वरन इससे अवनत स्थितियों सुखमा या सुखमा दुखा रूप है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि वहां के निवासियों ने कल्पवृक्षों आदि प्राकृतिक संसाधनों की बढ़ती कमी के अनुपात में अवनति पर विचार कर उनके संरक्षण को जनसंख्या और उपयोग को उनकी नैसर्गिक क्षमता के अनुरूप करके सुनिश्चित किया। इससे अवनति का क्रम अवसर्विणी परावर्तन रुक गया। जिस प्रकार मशीनों, भार वाहक पशुओं की अपनी-अपनी क्षमताएं होती हैं और इनकी क्षमता से अधिक भार डालने पर नुकसान होता है उसी प्रकार वनों, नदियों, झीलों, वायु आदि की भी क्षमताएं हैं। क्षमता की सीमा में ही मार डाला जाये इनका दोहन किया जावे तो ये यथावत् सुव्यवस्थित, प्रदूषण विहीन बने रहते हैं। कुछेक उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जावेगा। कम हार्स पावर से अधिक हार्स पावर की क्षमता अधिक होती है। घोड़े से ऊँट की, ऊँट से हाथी की भार वहन क्षमता अधिक है किन्तु यदि क्षमता से अधिक भार डालें तो इनको हानि होगी। किसी घांस के मैदान की किसी की दो गाय प्रति एकड़ चराने की क्षमता है और यदि इससे अधिक गाय या अन्य मवेशी चराई जावे तो घांस के मैदान (चरागाह) से घांरा नष्ट हो जावेगी। एक भैंस का भार दो गायों के बराबर होता है। किसी वन खंड की क्षमता उसमें छोटे-बड़े विभिन्न प्रजातियों की वार्षिक वृद्धि की सीमा में होती है। यदि वन खंड के सभी वृक्षों की लकड़ी का घन फल दस हजार वर्ग फीट है और वार्षिक वृद्धि सौ घन फीट है तो इतनी ही (सौ घन फीट ही) लकड़ी प्रतिवर्ष निकाली जाये तो वन-खण्ड की स्थिति यथावत बनी रहेगी, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होगा, उसी प्रकार जैसे बैंक में जमा राशि का यदि केवल व्याज ही निकाला जाये सभी प्राकृतिक घटकों, भूमि, वायु, जल आदि स्त्रोतों की क्षमताएं मापने व जानने की वैज्ञानिक विधियाँ उपलब्ध हैं किन्तु उनका अनुपालन नहीं हो रहा है। सभी संसाधनों पर भार क्षमता से कई गुना है और निरन्तर बढ़ रहा है।
जैनागम में प्रतिपादित उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल-परावर्तन का ही रूपान्तर वनस्पति विज्ञान में सक्सेशन (Succession) एवं रिट्रोग्रेशन (Retrogression) की प्राकृतिक प्रक्रिया है। उदाहरणार्थ उष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में किसी नदी प्रवाह के मार्ग बदलने पर रिक्त भूमि पर पशु-पक्षियों, वायु आदि द्वारा लाए विभिन्न बीजों में सर्वप्रथम साधारण घांस ही आवेगी जिससे पारिस्थितिकी का सुधार होगा, भूमि किंचित् उर्वरा बनेगी फिर छोटी झाड़ियाँ, फिर बबूल जैसे वृक्ष पनपेंगे, यद्यपि बीज अन्य कई वृक्षप्रजातियों के भी लाए जा रहे हैं। पारिस्थितिकी के क्रमशः सुधार से इसके बाद शीशम, सिरस आदि
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अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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