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लेने के तरीके से समझाया गया है। जो व्यक्ति पेड़ से स्वत: गिरे पके हुए फल ही लेता है वह पूर्ण अहिंसक है अर्थात् उसके शुक्ल (धवल) लेश्या है। दूसरा व्यक्ति जो पेड़ से ही चुन चुन कर केवल पके हुए फल तोड़ता है वह बहुत कम हिंसक है उसके पद्म (कमल वर्ण) लेश्या होती है। तीसरा व्यक्ति छोटी पतली डाली तोड़ता है जिसमें पके, कच्चे दोनों प्रकार के फल आ जाते हैं वह दूसरे से अधिक हिंसक है और उसके पीत लेश्या है। चौथा व्यक्ति और बड़ी डाली तोड़ता है वह और अधिक हिंसक है और उसके कापोत लेश्या होती है। पाँचवाँ व्यक्ति प्रमुख बड़ी शाखा तोड़ता है वह बहुत हिंसक है और उसके नील लेश्या है। छठा व्यक्ति घोर हिंसक होकर निर्ममता से पूरा वृक्ष नीचे से ही काट देता है, उसके कृष्ण लेश्या है। इन छ: व्यक्तियों के क्रमश: अधिकाधिक प्रमाद एवं हिंसा की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति है। इस प्रकार जैन धर्म में पूर्ण रूपेण अहिंसक भाव और क्रिया को ही उपादेय माना है। जैन दर्शन का सम्पूर्ण चिन्तन एवं आचार संहिता का केन्द्र बिन्दु अहिंसा है। इस परिप्रेक्ष्य में शाकाहार को जिसमें वनस्पतिकाय की निर्मम हिंसा हो उसे अहिंसकाहार नहीं कहा जा सकता।
हम यह भूल जाते हैं कि वनस्पतिकाय जीव ही हैं जिनमें सूर्य के प्रकाश के माध्यम से हवा से कारबन-डाइ-आक्साइड को एवं भूमि से जल एवं जटिल तत्वों को ग्रहण कर उनसे विभिन्न प्रकार के खाद्य फल,फूल,बीज,रंग,रेशे,गोंद,औषधियाँ आदि बनाने की क्षमता है। मनुष्य, पशु-पक्षियों एवं विभिन्न जीवों का भोजन वनस्पतिकाय जीव ही बनाते हैं। मांसाहारी भी जिन जीवों पर निर्भर हैं वे अन्ततोगत्वा वनस्पति पर ही निर्भर होते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण जीव जगत पर वनस्पतिकाय का सर्वाधिक उपकार है। यह एक विडम्बना है कि पशु-पक्षियों की सुरक्षार्थ उनकी हिंसा एवं उत्पीड़न के विरूद्ध विश्व के अधिकांश देशों में कानून हैं किन्तु वनस्पतिकाय के उत्पीड़न, हिंसा के विरूद्ध कहीं कोई कानून नहीं है। वनस्पति जगत के प्रति मनुष्य की यह घोर कृतघ्नता ही है। वनस्पतिकायिक जीवों के प्रति उपेक्षा और क्रूरता की पराकाष्ठा है। कई व्यक्ति निष्प्रयोजन निठल्ले बैठे, खड़े व्यर्थ ही दूब या पत्तियाँ तोड़कर उन्हें मसलते रहते हैं । बकरियों के चरवाहे वृक्षों की छोटी टहनियाँ बांस में लगी दराँती से इतना काटते हैं कि वृक्ष पर एक भी पत्ती नहीं रहती। पत्तियाँ वृक्षों के पाचन, श्वसन आदि के लिए आवश्यक हैं, इनके अभाव में वृक्षों की वृद्धि अवरूद्ध हो जाती है । वृक्षों, पौधों के फूल तोड़ना अत्यधिक प्रचलित है, प्रतिदिन की देव पूजा और अन्य अधिकांश समारोहों में फूलों की मालाओं, गुलदस्तों, पुष्प वर्षा (जैन मुनियों और समारोहों में भी) प्रचुरता से फूलों का उपयोग किया जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि फूलों के बाद ही फल बनते हैं। अत: फूल तोड़ना वनस्पति जीवों की भूण हत्या है। फूलों के अभाव में उन पर निर्भर कीट-पतंगें भी नष्ट हो जाते हैं जिन पर हमारी अधिकांश कृषि उपज, तिलहन, धान्य एवं फलों की उपज निर्भर हैं क्योंकि ये परागण में सहायक होते हैं। प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि किसी खेत या उद्यान में मधु मक्खी पालन किया जावे तो उपज में 25 प्रतिशत और इससे भी अधिक वृद्धि हो जाती है। वनस्पतिकायिक जीवों का मनुष्य एवं अन्य जीवों पर अत्यधिक उपकार है। अत: पशु क्रूरता निवारण कानूनों की भाँति वनस्पतिकाय के प्रति क्रूरता निवारण कानून भी बनने चाहिए।
वर्तमान में शाकाहार का जिस प्रकार उत्पादन एवं प्रयोग किया जाता है उसमें वनस्पतिकाय के साथ पृथ्वीकाय, जलकाय और त्रस जीवों की अपरिमित हिंसा अवश्यम्भावी है। कृषि के लिए भूमि तैयार करने में पृथ्वीकाय के असंख्य त्रस जीवों का घात होता है। रासायनिक उर्वरकों से कृषि के लिए ही उपयोगी अवशिष्ट सूक्ष्म जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं। सिंचाई की विभिन्न पद्धतियों में जलकायिक और त्रस जीवों की विराधना होती है। कीटनाशकों में प्रत्यक्षत: संकल्पी हिंसा ही है, क्योंकि कृषक 26
अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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