Book Title: Arhat Vachan 2007 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 31
________________ कीड़े मारने के संकल्प से ही इनका प्रयोग करता है। कृत, कारित, अनुमोदन से कृषि उपज खाने वाले श्रावकों एवं मुनियों को भी इस संकल्पी हिंसा का दोष लगता ही है। कीटनाशकों के बढ़ते एवं अनियन्त्रित प्रयोग से उपयोगी कीट-पतंगों एवं पशु-पक्षियों का घात होता है और कई प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं एवं शेष तीव्रता से लुप्त हो रही हैं। भोजन के माध्यम से कीटनाशक मनुष्यों के शरीर में आ रहे हैं जिसके फलस्वरूप केंसर, हृदय रोग आदि प्राणघातक रोगों का प्रकोप बढ़ रहा है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के कारण भूमि, जल एवं वायु का प्रदूषण भी निरन्तर बढ़ रहा है और इसके कारण अनेक रोग बढ रहे हैं। इस सबका यह अर्थ नहीं है कि अहिंसकाहार संभव ही नहीं है। हमारे परम हितोपदेशी तीर्थकर भगवंतो ने अहिंसा को जैन धर्म का सर्वोत्कृट सिद्धान्त बताया है तो अहिंसकाहार का भी उपदेश दिया है। इसके लिए जैन वाड़मय के त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में विस्तार से उल्लेखित कालपरावर्तन के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। काल-चक्र अनादि-अनन्त है जो अनवरत प्रवाहित है। प्रत्येक काल-चक्र में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का क्रम होता है। अवसर्पिणी में प्रथम सुखमा-सुखमा फिर क्रमश: सुखमा, सुखमा दुखमा, दुखमा सुखमा, दुखमा और दुखमा-दुखमा के छ: काल-खंडों में अत्यधिक सुखद काल से क्रमश: कम सुखद और निरन्तर बढ़ते दु:ख के काल खंड़ों में अवनति का क्रम है। उत्सर्पिणी में यह क्रम अत्यधिक दु:खद काल से क्रमश: कम दु:खद, निरन्तर बढते सुख के कालखंडों रूप उन्नति का क्रम होता है जो अनादि से चल रहा है। सुखमा-सुखमा काल में सभी घटक प्राकृतिक वायु, जल, पृथ्वी, छोटे-बड़े सभी जीव, मनुष्य भी पूर्णरूपेण सहजीवी व्यवस्था में रहते हैं। कोई किसी को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते। सारी व्यवस्था पूर्णरूपेण अहिंसक होती है। अहिंसकाहार कल्प वृक्षों से उनके द्वारा स्वत: गिराए फल-फूलों से उपलब्ध होता है । आयु पूर्ण किए वृक्षों की सूखी लकड़ी ही आवास, पात्र आदि के निर्माण में प्रयुक्त होती है। कल्पवृक्षों के सम्बन्ध में यदि वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाये तो यह स्पष्ट होगा कि उनसे बनी बनाई रोटी, सब्जी, कपड़े आदि नहीं मिलते थे वरन इनके लिए आवश्यक सामग्री मिलती थी। विभिन्न दस प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) जिनमें कई खाद्य सामग्री, कई पेय, कई आवास निर्माण के लिए उपयुक्त लकड़ी एवं अन्य विभिन्न प्रकार की सामग्री तेल, प्रकाशकीय पदार्थों, अनेक प्रकार के रसायन, वस्त्रों के लिए रेशे रंग, औषधियाँ आदि देने वाले वृक्ष वर्तमान में हीनाधिक मात्रा में अवशिष्ट वन प्रान्तरों में उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त कल्पवृक्षों पर नवीन कोपलों, फूलों आदि का शास्त्रों में वर्णन यह स्पष्ट करता है कि कल्पवृक्ष पृथ्वीकायिक नहीं थे, वरन् बनस्पतिकायिक ही थे और पाषाण युगीन सभ्यता में उन्हें उपमा-उपमेय की अलंकारिक साहित्यक भाषा में पृथ्वीकायिक बना दिया गया। इस सन्दर्भ में अर्हत् वचन के अप्रैल 1997 के अंक में प्रकाशित मेरे लेख "Kalpavrksas, the Benevolent Trees (Scientific interpretation)" में विस्तृत विवरण है। काल परावर्तन में प्रथम सुखमा-सुखमा काल से द्वितीय सुखमा काल में कल्पवृक्षों (वस्तुत: वृक्ष ही, कल्पवृक्ष संज्ञा उनके उपकार के कारण ही) की संख्या कम हो गई और आगे आगे के काल खंडों में क्रमश: बढ़ती जन संख्या और उपभोगवाद के कारण अधिकाधिक कम होती गई और उसी अनुपात में सुख कम होता गया, दु:ख बढ़ता गया। यह क्रम आज भी प्रत्यक्ष प्रमाणित है। विगत् पाँच दशकों में जन संख्या विस्फोट और बढ़ती उपभोक्ता संस्कृति के कारण वन क्षेत्र तीव्र गति से कम हुए और अवशिष्ट वनों में भी घनत्व अर्थात् प्रति हेक्टर वृक्षों की संख्या कम हुई है। चतुर्थ दुखमा-सुखमा काल अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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