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[ १० ॥ हिन्दू परंपरा से ही ग्रहण किया गया है । जैन परम्परा में चक्र श्वरी, अम्बिका, सिद्धायिक नैरोट्या आदि जिन देवियों की प्रतिष्ठा है, उनमें पा की यक्षिणी पद्मावती को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । अनेकानेक जैन मन्दिरों में आपको पद्मावती की प्रतिमाएं उपलब्ध होती है । हिन्दू परम्परा में जो स्थान दुर्गा का और बौद्ध परंपरा में तारा का है वही जैन परंपरा में पद्मावती का है। आज भी अनेक जैन उपासक और उपासिकायें पदमावती के प्रति अत्यधिक भक्ति और श्रद्धा युक्त देखे जाते हैं । यद्यपि जैन परंपरा में महावीर के यक्ष और यक्षिणी भी माने गये हैं किन्तु देखने में यह आता है कि महावीर के यक्ष और यक्षिणियों की अपेक्षा पार्ग के यक्ष और यक्षिणियों की ही जिन मन्दिरों में अधिक उपासना होती है। जैनों में यह आस्था दृढमूल हो चुकी है कि पार्श्व के यक्ष और यक्षी पार्श्व की अथवा स्वयं उनकी उपासना करने पर तत्काल विघ्नों का उपशमन करते हैं और भक्त का मंगल करते हैं। वस्तुतः यह एक ऐसा व्यावहारिक कारण है जिसके आधार पर हम यह समझ सकते हैं कि जैन परम्परा में पार्ननाथ के प्रति इतनी श्रद्धा और आस्था क्यों है ? पार्श्वनाथ का जैन परंपरा में जो महत्त्वपूर्ण स्थान है उसके अनेक कारणों में प्रमुख कारण उन्हें विघ्न-विनाशक के रूप में स्वीकार कर लेना है। पार्श्व का जीवनवृत्त : पार्श्व के जीवन के सम्बन्ध में हमें सर्वप्रथम उल्लेख कल्पसूत्र और समवायांग सूत्र में मिलते हैं । समवायांग सूत्र में पार्श्व के मातापिता के नाम, शरीर की ऊँचाई, आयु, गणधरों की संख्या, श्रमणश्रमणियों एवं गृहस्थ उपासक-उपासिकाओं की संख्या आदि के उल्लेख मिलते हैं ।40 कल्पसूत्र में पार्श्व संबंधी विवरण समवायांग की अपेक्षा कुछ विस्तृत है । उसमें सर्व प्रथम यह बताया गया है कि पार्श्व के पंच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए । वे चैत्र कृष्ण चतुर्थी को गर्भ में आये, पौष कृष्ण दशमी को अर्धरात्रि के पश्चात् विशाखा नक्षत्र में उनका जन्म हुआ। ३० वर्ष की अवस्था में पौष कृष्ण एकादशी को पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्र में वे आश्रमपद नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रवजित हुए । प्रवजित होने के तिरासी रात्रि के व्यतीत हो
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