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[ ५७ ] कुछ विवरण उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु ये ग्रन्थ भी पार्श्व का सुव्यवस्थित जीवन विवरण प्रस्तुत नहीं करते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सर्व प्रथम शीलांक (लगभग ९ वीं शती) के चउपन्नपुरिसचरियं और आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में पार्श्व का जीवनवृत्त मिलता है।
इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति, भगवती आराधना आदि से पार्श्व एवं पार्श्वस्थों के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएं उपलब्ध हैं, किन्तु इनमें पार्श्व के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त का अभाव है। दिगम्बर परम्परा में पार्श्व के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त को प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रंथ जिनसेन एवं गुणभद्र का महापुराण है । महापुराण दो भागों-आदिपुराण और उत्तरपुराण में विभाजित है। आदिपुराण में ऋषभदेव का वर्णन है; जबकि उत्तरपुराण में अन्य २३ तीर्थंकरों का वर्णन है। इसी उत्तरपुराण में पार्श्व का जीवनवृत्त भी वर्णित है। यह उत्तरपुराण गुणभद्र की कृति है और इसका रचनाकाल ई० सन् ८४८ के लगभग माना जा सकता है किन्तु इसके पूर्व पार्श्व के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे जाने लगे थे। अभी तक उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के लगभग २५ से अधिक स्वतंत्र ग्रंथ पार्श्व के जीवनचरित पर लिखे गये हैं जिनकी यहाँ संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।
(१) पाश्र्वाभ्युदयः जिनसेन–पार्श्व पर लिखे गये स्वतन्त्र ग्रन्थों में पार्वाभ्युदय का स्थान सर्वप्रथम आता है । यह ग्रंथ दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन प्रथम की रचना मानी जाती है । इसका रचनाकाल ई० सन् ७८३ से पूर्व माना जाता है । मूलतः एक समस्यापूर्ति काव्य के रूप में इस ग्रन्थ की रचना की गयी है। इसमें चार सर्ग और ३६४ पद्य हैं। जिसमें मुख्यतया पार्श्व के उपसर्गों की चर्चा उपलब्ध होती है । यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध है।
(२) पार्श्वनाथचरितम् : वादिराजसूरि-यह ग्रन्थ १२ सर्गों में विभक्त है, तथा पार्श्व के पूर्वभवों और जीवनवृत्त का विस्तार से विवेचन करता है। इसकी भाषा संस्कृत है। कवि ने 'इसे पार्श्व जिनेश्वरचित महाकाव्य' कहा है। यह ई० सन् १०१९ की रचना है।
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